चक्रधर शुक्ल के दोहे
कैसे कैसे लोग हैं, बदलें अपना रूप।बाहर दिखते संत हैं, अन्तस बहुत कुरूप।।
वृक्ष काटने में लगे, वन रक्षक श्रीमान।
पर्यावरण बिगाड़ते, टावर लगे मकान।।
गौरैया भी सोचती, कैसे रहे निरोग।
टावर तो फैला रहे, जाने कितने रोग।।
पीत वसन पहने मिली, सरसों जंगल खेत।
अमलतस के मौन को, क्या समझेगी रेत।।
गौरैया गाती नहीं, चूँ-चूँ करके गीत।
मोबाइल में बज रहा, अब उसका संगीत।।
मटर चना फूले-फले, सरसों गाये गीत।
कानों को अच्छा लगा, फागुन का संगीत।।
जो जितना गुणवान है, वो उतना गम्भीर।
आँखों में उसके दिखे, क्षमा, दया, शुचि, नीर।
पेड़ काटते ही रहे, दागी, तस्कर, चोर।
घन-अम्बर बरसे नहीं, सूखा राहत जोर।।
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