डॉ अनुज नागेन्द्र के दोहे
आँखों-आँखों मे हुआ, कुछ ऐसा संकेत।हरा-भरा दिखने लगा, आग उगलता खेत।।
ऐंठ रही है इस तरह, धनवानों की आँत।
इक रोटी पर हैं गड़े, आज हजारों दाँत।।
शहरों जैसे हो गये, अब तो अपने गाँव।
गायब होती जा रही, हरे पेड़ की छाँव।।
राजनीति से हो गयी, सारी प्रकृति कुरूप।
उनके घर बरसात थी, मेरे आँगन धूप।।
प्यास बुझाते ही ‘अनुज’, गयी नदी जब सूख।
हरियाली खाने लगी, फिर मौसम की भूख।।
धर्म स्वयं लडऩे लगे, करते जूता-लात।
कहीं गोधरा हो रहा, और कहीं गुजरात।।
कृष्ण आज के खींचते, द्रुपद सुता का चीर।
कलियुग के राँझे यहाँ, स्वयं बेचते हीर।।
जीव-जगत-परमात्मा, तीनों का यह भेद।
काली भूरी गाय से, निकले दूध सफेद।।
बगुलों के दरबार में, नहीं हंस को ठौर।
कोयल तो मूर्छित पड़ी, कौवे हैं सिरमौर।।
तने हुए जो पेड़ थे, आँधी गयी उखाड़।
अनुज सुरक्षित बच गये, सिर्फ लचीले झाड़।।
सिर्फ समय की बात है, जहाँ मिली दुत्कार।
उसी द्वार से एक दिन, तुम्हें मिलेगा प्यार।।
तन के पोषण के लिए, बेच रहे ईमान।
कहलाते इस दौर में, वे ही अनुज महान।।
मै ईश्वर कहता जिसे, तुम कहते अल्लाह।
मंजिल सबकी एक है, अलग-अलग है राह।।
माथे पर चन्दन लगा, या पीताम्बर ओढ़।
दूर न होगा ढ़ोंग से, तेरे मन का कोढ़।।
मूर्छित है संवेदना, हृदय हुए पाषाण।
किसे सुनाये उपनिषद, गीता वेद पुरान।।
कितनी दुखदायी हुयी, इक छोटी सी चूक।
प्राण पखेरू ले उड़ी, पलभर में बन्दूक।।
दूजे का दुर्गुण दिखे, दिखे न मन का पाप।
देखे तिरछी आँख से, अब बेटी को बाप।।
दुख लेकर सुख बाँटना, यह मानव का धर्म।
सुख लेकर दुख बाँटना, यह दानव का कर्म।।
उन बच्चों पर ही टिका, अखिल विश्व का भार।
जो कचरे में ढ़ूँढ़ते, रोटी माँ का प्यार।।
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