सीमा पांडे मिश्रा ‘सुशी’ के दोहे  - दोहा कोश

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गुरुवार, 12 जनवरी 2023

सीमा पांडे मिश्रा ‘सुशी’ के दोहे 

सीमा पांडे मिश्रा ‘सुशी’ के दोहे 

कुंठाओं की शाख पर, राग द्वेष के रोग।
शूलों को चुभते रहे, फूलों जैसे लोग।।

बार-बार करते रहे, आहत उनका मान।
देवी माँ से माँगकर, बेटे का वरदान।।

तुमने जाना ही नहीं, कहाँ धूप कब छाँव।
बस की खिड़की से तका, तुमने मेरा गाँव।।

थकी-थकी सी झोंपडी, बुझते हुए चिराग।
सब कुछ रोशन कर गई, बस चूल्हे की आग।।

देवी की उपमा कभी, कभी नरक का द्वार।
अतिशयता के कूप में, उठी गिरी हर बार।।

रोटी , कपड़ा, ब्याह औ, बूढ़ी माँ बीमार।
एक फसल के शीश पर, कितने-कितने भार।। 

दिन भर तीखी धूप को, सह जाने के बाद।
खिलकर कहता मोगरा, ये मेरा प्रतिवाद।। 
 
भेद सहा हर बात पर, मिला न पूरा प्यार।
कहा पराया धन मुझे, दिए नहीं अधिकार।।

उजियारे में भिन्न सब, अँधियारे में एक।
फिर भी अँधियारा बुरा, उजियारा है नेक।।

पूरे मन से क्रोध तब, पूरे मन से प्यार।
सोने जैसा था खरा, बचपन का संसार।।

नदिया दिखती चंचला, कल-कल बहता नीर।
रेत बयानी कर रही, संघर्षों की पीर।।

घुमड़ें बादल याद के, तब मनवा बेचैन।
रीता-रीता मन लगे, भरे-भरे से नैन।।

पत्ता-पत्ता हर लिया, पतझड़ ने कर वार।
भीतर हरियाली लिए, राह तके कचनार।।

पनघट, पीपल, बावड़ी, नदिया वाला गाँव।
जब भी निकला धूप में, यादों में थी छाँव।।

चाहे कर लो बंद सब, खुले हुए ये द्वार।
खिडक़ी मन की हो खुली, आये सदा बयार।।

सूर्य, धरा का देख लो, हम तुम सा अनुराग।
कभी बरसते मेघ तो, कभी बरसाती आग।।

खुले हाथ से दे रहा, सूरज अपनी धूप।
धरती ने जीवन चुना, चुना चाँद ने रूप।।

ऋण लेकर चमका रहा, जग में अपना शीश।
सूरज के आशीष से, फलीभूत रजनीश।।

सब कुछ अपना दे दिया, पास बची बस पीर।
मात-पिता निर्धन हुए, बेटे बहुत अमीर।।

गहरे पड़ता पैठना, कठिन लक्ष्य की गैल।
भूजल पाने के लिए, जड़ें तोडती शैल।।

खाद बीज औ’ बोवनी, सबने ले ली जान।
ऋण लेके फँसता गया, पल-पल मरा किसान।।

आँगन लगे उदास-सा, गायब है चहकार।
कब आएगी की लाडली, पूछ रहे हैं द्वार।।

नदी उफनकर बढ़ चली, डूब गए तटबंध।
जब-जब बाँधा बाँध तो, टूट गये संबंध।।

जब लौटा परदेश से, माँ भूली हर दर्द।
अँखियों की बरसात ने, धो डाली सब गर्द।।

ऐसी करनी देखकर, दानव भी हैरान।
पत्थर युग को जी रहा, कलयुग का इंसान।।

जिस दिस मिलता प्रेम है, मन जाए उस छोर।
गमले का पौधा झुके, सदा धूप की ओर।।

नटनी जैसा संतुलन, बैठाती हर बार।
घर-बाहर दो पाट हैं, पिसती जिनमें नार।।

बड़ी इमारत के तले, थे कच्चे आवास।
बस्ती सारी जल गई, बुझी न धन की प्यास।।

सूनी आँखें ढूँढती, लौटा और गिलास।
झुग्गी के संग जल गया, इक तिनका विश्वास।।

पहले जंगल छिन गए, फिर सूरज की धूप।
ऊँचे भवन इमारतें, यही नगर का रूप।।

आशाओं की छाँव को, सर पर रखना तान।
संघर्षों की धूप फिर, राह बने आसान।।

जबसे तुमको दे दिया, जीवन पर अधिकार।
मैं तुममें जीने लगी, तुम मुझ में साकार।।

कितनी भी घूमे धरा, मिले नहीं परितोष।
गृहिणी जब यह सोचती, हो जाता संतोष।।
 
किन्नर कैसे कर रहा, खुशियों का व्यापार।
खुद दुख का गोदाम है, पीड़ा का अम्बार।।

बढती मानव की क्षुधा, नहीं समझती पीर।
पर्वत से पत्थर छिने, औ’ नदिया से नीर।।

न्याय भले ही न मिले, मिले धैर्य सम्मान।
तीस बरस तारीख पर, आता रहा किसान।।

चूडी कंगन काँच के, मेले का वो हार।
अब हीरे से भी नहीं, आँखों में चमकार।।


 

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