पुष्पलता शर्मा के दोहे  - दोहा कोश

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

पुष्पलता शर्मा के दोहे 

पुष्प लता शर्मा के दोहे 

सूरज की किरणें हुई, अँधियारे में कैद।
चमगादड़ उल्लू सभी, पहरे पर मुस्तैद।।

चार दिनों की जिंदगी, चार दिनों का साथ।
पाप कमाये ‘पुष्प’ क्यों, जाना खाली हाथ।।

गंगा जल देते सभी, क्यों मरने के बाद।
जीते जी प्यासे मरे, आये कभी न याद।।

नारी कहते हैं उसे, जिसने जना जहान।
लेकिन पाती है नहीं, कभी ‘पुष्प’ सम्मान।।

‘पुष्प’ नये इस दौर में, घटे खेत खलिहान।
ठाठ सिमट कर रह गये, छोटे हुये मकान।।

सडक़ किनारे झोपड़ी, निर्धन का प्रासाद।
कठिन कर्म कालीन है, ओढ़े कष्ट विषाद।।

नहीं सुरक्षित बेटियाँ, अपने ही घर द्वार।
मनुज भेडिय़े हो गये, करते अत्याचार।।

झुकती कमर पहाड़ की, सरिता है बेहाल।
मानव सुख की चाह में, खींचे भू की खाल।।

साया ही अपना यहाँ, होता सच्चा मीत।
सुख दुख सहता साथ में, यही जगत की रीत।।

पेड़ बड़े सब काट के, ढूँढें शीतल छाँव।
टुकड़े-टुकड़े बेच कर, खोज रहे अब गाँव।।

स्वारथ सबका एक है, बस दो पल का साथ।
पूरित कर मन कामना, छोड़ चले फिर हाथ।।

अनपढ़ है मति मूढ़ माँ, देती अद्भुत ज्ञान।
गिरवी कंगन हार रख, ऊँचा करे मचान।।

माता बगिया पुष्प है, पावन तुलसी द्वार।
उसके  बिन संभव नहीं, खुशियों का संसार।।

पिघल पिघल कर मोम सी, आँखें लिखती बात।
बूँद बूँद ज्यों जोडक़र, नभ लिखता बरसात।।

बनना सारे चाहते, तुलसीदास कबीर।
और चाहते दें बदल, इक पल में तकदीर।।

 ज्ञानी अपने ज्ञान का, करते नहीं बखान।
उनके गुण उनका स्वयं, करते हैं गुणगान।।

कण कण में बसता यहाँ, देखो भ्रष्टाचार।
रक्षक भक्षक बन गये, करे कौन उपचार।।

बिन बोले सब जानती, दूर रहे या पास।
होती माता इसलिए, ईश्वर जैसी खास।।

वक्त दिखाता आइना, ‘पुष्प’ न समझें लोग।
भौतिकता की चाह में, कष्ट रहे हैं भोग।।

मँहगाई की मार से, सभी गये हैं हार।
रूखी सूखी रोटियाँ, खाते हैं लाचार।।

अश्कों में डूबी कलम, दोहे लिखती खास।
पढक़र सब हर्षित दिखें, बड़ा सुखद अहसास।।

बच्चे तो भगवान का, होते सच्चा रूप।
घर आँगन में यूँ खिलें, ज्यूँ खिलती है धूप।।

पग पग बिखरी है ख़ुशी, पग पग मिलता ज्ञान।
मंजिल पाने को मगर, भरनी पड़े उड़ान।।

मानवता दिखती नहीं, ‘ पुष्प’ सकल संसार।
प्यासे हैं सब खून के, लेकर फिरें कुठार।।

बच्चों को आकार दे, बनकर मात कुम्हार।
खेल खेल में प्यार से, सिखलाती व्यवहार।।

पत्थर दिल इंसान में, ‘पुष्प’ न खोजो प्रीति।
आशाएँ संवेदना, हुई पुरानी रीति।।

बच्चों को मिलता जहाँ, पूरा प्यार दुलार।
खुशियों से हर्षित रहे, हरपल घर परिवार।।

रिश्तों की बुनियाद अब, दिखती है कमजोर।
सब जन रहते साथ पर, टूट रही है डोर।।

इधर उधर की बात में, समय गवांते व्यर्थ।
कोई-कोई जानता, इस जीवन का अर्थ।।

समय, समय पर ये समय, करता रहा प्रहार।
विद्वानों ने कर लिए, अपने दूर विकार।।


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