धनीराम बादल के दोहे
सब कुछ जिसमें खास है, लेकिन रहती आम।इस अचरज का रख दिया, माँ दुनिया ने नाम।।
परेशानियाँ झेलकर सहती है हर पीर।
माँ से बढक़र कौन है, दुनिया में गम्भीर।।
उम्र कैद की सी सजा, सांस-फांस का सार।
दुख दर्दों ने मान ली, मेरी माँ से हार।।
सर्दी में जब दाँत का, जारी था संगीत।
एक गुनगुनी धूप सी, मिली तुम्हारी प्रीत।।
मैं भी मुक्त उड़ान हूँ, तुम भी मुक्ताकाश।
बंधन की फिर भी रही, चाहत और तलाश।।
बेशर्मी सब कह गई, लब को रखकर बंद।
शर्म देखती रह गई, आपस के संबंध।।
अवसर के सब खेल हैं, क्या पैसा, क्या मीत।
आँख मुँदी तो हो गए, फटेहाल जगजीत।।
‘स्वामी’ की ख़्ााहिश नहीं, नहीं चाहती ‘दास’।
सुख-दुख का साथी मिले, यही एक अरदास।।
एक उठाकर ले गया, दूजे ने दी त्याग।
सीता को झुलसा गई, दो दंशों की आग।।
जुगनू को जागीर का, ऐसा मान-गुमान।
दिया निमंत्रण सूर्य को, माँग कभी वरदान।।
बाहों भर चाहत मिली, आँखों भर विश्वास।
भरे पेट से बाँचती, हूँ सुख का इतिहास।।
करना है अच्छा करो, आँखों का उपयोग।
सुन्दर तन को देखते, जैसे छप्पन भोग।।
हाव-भाव से है यही, जाहिर उसका तौर।
रिश्ता मुँह बोला नहीं, रिश्ता है कुछ और।।
तिनका-तिनका हो गया, मेरा घर परिवार।
बड़ा रहम वाला तुझे, कहता है संसार।।
धर्म-कर्म कुछ भी करो, चले न इस पर जोर।
कौवा हंस न हो सके, मुर्गी बने न मोर।।
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