राहुल शिवाय के दोहे
धुंध भरा घूंघट हटा, निखरा भू का रूप।
बिखराई जब सूर्य ने, एक कटोरी धूप॥
किस नाइन ने हैं रँगे, इस पूरब के पाँव।
इसे देखने जग रहा, धीरे-धीरे गाँव।।
चाहे तुम मेरा कहो, या अपनों का स्वार्थ।
मैं अंदर से बुद्ध हूँ, बाहर से सिद्धार्थ।।
आओ हम उस वृक्ष में, डालें पानी-खाद।
जो करता है धूप का, छाया में अनुवाद।।
नई सदी ने प्रेम का, देखा कैसा ख़्वाब।
मुखड़े पर इनकार के, फेंक दिया तेज़ाब।।
बेकारी, दंगे, हवस, भूख, ग़रीबी पीर।
एक युवक ने देश की, खींची यह तस्वीर।।
जगह खोजती रह गई, पीड़ा, भूख, गुहार।
विज्ञापन ने इस तरह, हथियाया अख़बार।।
दक्षिण क्या दक्षिण रहा, रहा वाम क्या वाम?
मैं पहले भी आम था, मैं अब भी हूँ आम।।
कहाँ सिया को ले गई, स्वर्ण हिरण की चाह।
जान रहे फिर भी नहीं, हमने बदली राह।।
निर्गुन हो या हो सगुन, लो श्रद्धा से नाम।
हैं कबीर से कब अलग, गोस्वामी के राम।।
लोकतंत्र में लोक का, दिखा अजब क़िरदार।
खरबूजे चुनते रहे, चाकू की सरकार।।
यूँ ही दहशत से नहीं, फसलें हैं बेहाल।
शहरों से अब खेत तक, आ पहुँचा घड़ियाल।।
सोच रही फ़सलें यहाँ, कौन भरेगा पेट।
कंकरीट करने लगे, खेतों का आखेट।।
सच है समझेंगे कहाँ, कृषकों का श्रम आप।
सिर्फ़ रोटियाँ जानतीं, गर्म तवे का ताप?
दिल्ली हर दिन चाहती, गेंहूँ मक्का धान।
पर ग़लती से भी नहीं, भटके वहाँ किसान।।
हर सपने को बेचना, दिल्ली का दस्तूर।
ऐसे में कैसे करे, कृषकों का दुख दूर?
इस समाज की सोच का, बीतेगा कब पूस।
औरत होती है नहीं, डायन या मनहूस॥
बल्ब बोलता, आदमी!, पूज मुझे तू नित्य।
मुझे आज के दौर में, कहते सब आदित्य॥
देख समस्या यह सदी, करती सिर्फ़ सवाल।
नहीं कभी बदलाव की, बनती स्वयं मशाल॥
विज्ञापन के बल हुआ, ऐसा सुखद सुयोग।
लाखों में बिकने लगे, दो कौड़ी के लोग।।
सत्ता के आगे विवश, होता जब कानून।
तब बहते हैं एक-सम, पानी-मदिरा-ख़ून।।
साँप भेड़िया नेवला, गिरगिट कुत्ता चील।
एक आदमी हो गया, किस-किस में तब्दील।
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