शैलजा नरहरि के दोहे
जंगल सुनता रह गया, चट्टानों की बात।
पत्थर को भी चाहिए, हरियाली का साथ।।
खिडक़ी पर बैठे रहे, आँखें आँसू याद।
शायद वो आ जायेगा, दिन दो दिन के बाद।।
बौने लोगों को मिले, कितने लम्बे हाथ।
हाँ में हाँ करते मिले, मुखिया जी के साथ।।
बाबा की आँखें मुंदी, छूटा सब व्यवहार।
घर में ताला डाल कर, बिखर गया परिवार।।
मन में रख ले आइना, चुपके-चुपके देख।
तेरा चेहरा एक है, अलग-अलग उल्लेख।।
मुट्ठी में बाँधे रहो, अपने सभी उसूल।
ये तुमको अनुकूल हैं, औरों को प्रतिकूल।।
आँख खुले का खेल है, सदियों का इतिहास।
यहीं छोडक़र सब गये, जो था जिसके पास।।
बड़ा तुझे बनना अगर, मन का कर विस्तार।
पुस्तक-सा कर आचरण, मत बन तू अखबार।।
कन्या पौधा धान का, उखड़े फिर जम जाय।
अपनी मिट्टी छोडक़र, औरों में हरियाय।।
बने देवता बाद में, पहले थे गोपाल।
चिन्ता ने वसुदेव की, बना दिया नन्दलाल।।
खिडक़ी पर बैठे रहे, आँखें आँसू याद।
शायद वो आ जायेगा, दिन दो दिन के बाद।।
बौने लोगों को मिले, कितने लम्बे हाथ।
हाँ में हाँ करते मिले, मुखिया जी के साथ।।
बाबा की आँखें मुंदी, छूटा सब व्यवहार।
घर में ताला डाल कर, बिखर गया परिवार।।
मन में रख ले आइना, चुपके-चुपके देख।
तेरा चेहरा एक है, अलग-अलग उल्लेख।।
मुट्ठी में बाँधे रहो, अपने सभी उसूल।
ये तुमको अनुकूल हैं, औरों को प्रतिकूल।।
आँख खुले का खेल है, सदियों का इतिहास।
यहीं छोडक़र सब गये, जो था जिसके पास।।
बड़ा तुझे बनना अगर, मन का कर विस्तार।
पुस्तक-सा कर आचरण, मत बन तू अखबार।।
कन्या पौधा धान का, उखड़े फिर जम जाय।
अपनी मिट्टी छोडक़र, औरों में हरियाय।।
बने देवता बाद में, पहले थे गोपाल।
चिन्ता ने वसुदेव की, बना दिया नन्दलाल।।
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