पद्मश्री बेकल उत्साही के दोहे
चेला दहशत गर्द है, गुरू नगर कोतवाल।
नए शियर बाज़ार में, इतनी बड़ी उछाल।।
पहले अपने आन की, हर तदवीर दबोच।
मालिक से तकदीर के, फिर मिलने की सोच।।
बिन मौसम बरखा हुई, ऊबा बहुत किसान।
गेहूँ बोकर खुश हुआ, लगा उपजने धान।।
अब तो अपने देश में, व्योसाइक हर काम।
नीति, रीति, साहित कला, रिश्ते दुआ सलाम।।
पश्चिम की पोशाक में, भारत की संतान।
लडक़ा-लडक़ी की भला, कौन करे पहचान।।
मूरख तुम हिन्दू रहे, हम मुसलिम नादान।
रोग लगा कुछ इस तरह, बन न सके इन्सान।।
अंदर गूँगा है मियाँ, बाहर आँख न कान।
जाहिल सब आचार्य हैं, अनपढ़ सब विद्वान्।।
दीवाना हँसने लगा, रोया जब हुशियार।
अज्ञानी सब स्वस्थ हैं, ज्ञानी सब बीमार।।
जब तेरे बस में नहीं, तेरे दिन औ’ रात।
फिर किस पर अकड़ा फिरे, क्या तेरी औकात।।
चादर छोटी भीख की, ढाँप सकी ना पाँव।
शहर तेरे फुटपाथ पर, याद आ रहा गाँव।।
शीशे सभी दुकान के, हैं धोखे के दाँव।
मोल किया औ’ बिक गया, याद आया फिर गाँव।।
पैसे की बौछार में, लोग रहे हमदर्द।
बीत गई बरसात तो, मौसम आया सर्द।।
ट्रेन चली तो चल पड़, खेतों के सब झाड़।
भाग रहे हैं साथ में, जंगल और पहाड़।।
क्या होंठन मुसकान है, क्या नयनों के बान।
साथ जवानी ले गई, सब मस्ती की शान।।
अद्र्ध सदी में देश की, हुई तरक्की खूब।
मरमर की दीवार पर, लगी उपजने दूब।।
अच्छे लगते जिस्म पर, अपने बुने लिबास।
रूह ढाँपने के लिए, फूली नहीं कपास।।
मेरे दोनों पुत्र हैं, गोबर और गणेश।
दोनों के मतभेद से, धधक रहा है देश।।
पैगंबर का कौल है, जग है इक परिवार।
प्यार पड़ोसी से करो, सुखी रहे संसार।।
आतंकी हर चाल है, अब बच्चों का खेल।
बढ़ी सुरक्षा इस कदर, सदन हो गया जेल।।
गोरी गोरे रंग पर, काहे को मगरूर।
उजले दिन के बाद ही, होती रात जरूर।।
पहले अपने आन की, हर तदवीर दबोच।
मालिक से तकदीर के, फिर मिलने की सोच।।
बिन मौसम बरखा हुई, ऊबा बहुत किसान।
गेहूँ बोकर खुश हुआ, लगा उपजने धान।।
अब तो अपने देश में, व्योसाइक हर काम।
नीति, रीति, साहित कला, रिश्ते दुआ सलाम।।
पश्चिम की पोशाक में, भारत की संतान।
लडक़ा-लडक़ी की भला, कौन करे पहचान।।
मूरख तुम हिन्दू रहे, हम मुसलिम नादान।
रोग लगा कुछ इस तरह, बन न सके इन्सान।।
अंदर गूँगा है मियाँ, बाहर आँख न कान।
जाहिल सब आचार्य हैं, अनपढ़ सब विद्वान्।।
दीवाना हँसने लगा, रोया जब हुशियार।
अज्ञानी सब स्वस्थ हैं, ज्ञानी सब बीमार।।
जब तेरे बस में नहीं, तेरे दिन औ’ रात।
फिर किस पर अकड़ा फिरे, क्या तेरी औकात।।
चादर छोटी भीख की, ढाँप सकी ना पाँव।
शहर तेरे फुटपाथ पर, याद आ रहा गाँव।।
शीशे सभी दुकान के, हैं धोखे के दाँव।
मोल किया औ’ बिक गया, याद आया फिर गाँव।।
पैसे की बौछार में, लोग रहे हमदर्द।
बीत गई बरसात तो, मौसम आया सर्द।।
ट्रेन चली तो चल पड़, खेतों के सब झाड़।
भाग रहे हैं साथ में, जंगल और पहाड़।।
क्या होंठन मुसकान है, क्या नयनों के बान।
साथ जवानी ले गई, सब मस्ती की शान।।
अद्र्ध सदी में देश की, हुई तरक्की खूब।
मरमर की दीवार पर, लगी उपजने दूब।।
अच्छे लगते जिस्म पर, अपने बुने लिबास।
रूह ढाँपने के लिए, फूली नहीं कपास।।
मेरे दोनों पुत्र हैं, गोबर और गणेश।
दोनों के मतभेद से, धधक रहा है देश।।
पैगंबर का कौल है, जग है इक परिवार।
प्यार पड़ोसी से करो, सुखी रहे संसार।।
आतंकी हर चाल है, अब बच्चों का खेल।
बढ़ी सुरक्षा इस कदर, सदन हो गया जेल।।
गोरी गोरे रंग पर, काहे को मगरूर।
उजले दिन के बाद ही, होती रात जरूर।।
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