चित्रा श्रीवास के दोहे
सोच रहा है मेमना, नहीं कहीं है ठौर।
गली-गली में भेड़िये, बने हुए सिरमौर।।
अंधे-बहरों की सभा, काने का है राज।
जिसने लज्जा त्याग दी, उसके सर पर ताज।।
समझा जिसको कोयला, वह हीरे की खान।
सोना माना था जिसे, चूर किया अभिमान।।
जुगनू हरदम सोचता, मुझसे हुआ उजास।
सूरज के अभिदान का, उसे नहीं अहसास।।
तितली अक्सर सोचती, मेरा था क्या दोष।
लुटा दिया था फूल पर, अपने मन का कोश।।
घड़ियालों का राज है, हर सरिता हर ताल।
मछली बेबस हो गयी, देख सभी जंजाल।।
कलियाँ सारी नोच कर, किया बाग़ वीरान।
माली ने ही छीन ली, पौधों की मुस्कान।।
चारण बनकर भेड़िया, ख़ूब करे यशगान।
बढ़ा दिया वनराज ने, उसका क़द-सम्मान।।
अमरबेल-से फैलते, कुछ परजीवी रोज।
औरों का हक़ छीन कर, करते शाही भोज।।
होरी-हलकू की यहाँ, समझी किसने पीर।
श्रम का फल मिलता नहीं, है आँखों में नीर।।
सुनी नहीं वनराज ने, बुलबुल की आवाज।
ख़ूब बढ़ा है हौसला, झपटे जब-जब बाज।।
गली-गली में भेड़िये, दुबका है खरगोश।
बाड़े में अब भेड़ भी, बैठी है ख़ामोश।।
चिड़िया चुगती रह गयी, दाने दो-दो चार।
हथिया डाला बाज ने, पूरा ही बाज़ार।।
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