तारकेश्वरी 'सुधि' के दोहे
अंदर से कुछ और हैं, बाहर से कुछ और |
किस पर करें यक़ीन अब, अजब आज का दौर।।
जीवन यदि गतिशील हो, भर देता उत्साह।
नदियों में मौजूद ज्यों, नाद, तरंग, प्रवाह।।
जो है अच्छा याद रख, बाक़ी बात बिसार।
छोटी-सी ये ज़िन्दगी, ऐसे इसे सँवार।।
आलस करता ज्ञान से, धन से सदा विपन्न।
मेहनत ही करती सदा, सभी काज़ संपन्न।।
एक बार जो खो गया, मिले न कर लो यत्न |
करो उचित उपयोग तुम, समय कीमती रत्न।
क़द्र नही यदि बात की, रहा कीजिए मौन।
वे ढपली-ढोलक लिए, तुझे सुनेगा कौन।
अश्व-गधे जिसके लिए, होते एक समान|
सिर्फ मूरखों से मिले, उस राजा को मान।।
कर जाएँ मुस्कान सँग, बच्चे बाधा पार ।
अगर आपने दे दिया, मित्र सबल आधार ।।
चंचल मन को कब भला, मिलता है ठहराव|
पल में जाकर नापता, अम्बर का फैलाव।।
जिनसे अक़्सर बैठकर, करते हम संवाद।
उनसे होना लाज़मी, थोड़ा वाद-विवाद।।
दिल बैठा दिल थामकर, सुन क़दमों की चाप।
ये नैना पगडंडियाँ, चुपके आये आप।।
दुनिया जंगल-जाल है, पग-पग मिलते शूल।
कर लेता है पार जो, उसके हक़ में फूल।।
देख उसे नज़दीक़ से, 'सुधि' मानव को तोल।
लगते हमें सुहावने, सदा दूर के ढोल।।
देती है मुस्कान भी, करती कभी उदास।
यह छोटी सी जिन्दगी, अज़ब-गज़ब आभास॥
नारी-शिक्षा के लिए, यूँ तो सब मुस्तैद।
उनके घर की नार है, पर घूँघट में क़ैद।।
पहचानूँ कैसे भला, अच्छा कौन खराब।
लोग यहाँ डाले हुए, मुख पर कई नक़ाब।।
पहले अपने को परख, फिर अपना बर्ताव।
तब औरों की दोस्ती, परख किसी का भाव॥
पानी है मंजिल अगर, तो मत देखो शूल।
बिना शूल के फूल का, ख़्वाब देखना भूल।।
फिसल न जाना राह में, क़दम क़दम पर गार।
है हँसने को आप पर, यह दुनिया तैयार।।
बने महल से खंडहर, खंडहरों से रेत।
महलों की जीवन कथा, करे गूढ संकेत ।।
बदलेगा ये वक़्त भी, अभी मान मत हार।
ज्यों पतझड़ के बाद में, लौटी सदा बहार।।
बन्द न करना वार्ता, बेशक़ करना जंग।
सभी सुलह के रास्ते, वरना होंगे तंग।।
बेशक़ थोड़ा ही पढ़ो, पढ़ो मगर तुम नित्य।
भरता मन में स्वच्छता, बस अच्छा साहित्य।।
मतलब की बैसाखियां, उन पर चलते जो लोग।
अपने जैसों से सदा, होता उनका योग।।
मिले अगर आरम्भ से, विद्या का आधार।
जीवन, मन होता सुख़द, उन्नत सोच, विचार।।
मिलता मोती ज्ञान का, करो अगर संकल्प।
लेकिन मेहनत का नहीं, कोई और विकल्प।।
रंक बने राजा कभी, राजा रंक हुजूर ।
देने वाला वो ख़ुदा, तुम नाहक़ मग़रूर ॥
रहता है संकल्प का, एक क्षणिक आवेश।
मिले शिथिलता राह में, धर कर नाना वेश।।
राह किधर, मंजिल कहाँ, नहीं किसी को होश।
लक्ष्यहीन बन दौड़ते, व्यर्थ पालकर जोश।।
रोता है दिल बारहा, देख झूठ के पाँव ।
सच तो बैठा धूप में, मिले कहाँ पर छाँव॥
वक़्त गुज़रने पर करें, 'सुधि' सब पश्चाताप।
था जीवन सुलझा हुआ, बस उलझे हम-आप।।
वक़्त कहाँ है पास जो, करें स्वयं से बात।
भौतिकता ही घेरकर, बैठी है दिन-रात।।
विरहानल का ताप हो, या गर्मी की मार।
जठरानल के सामने, सब बातें बेक़ार।।
सुधि कुछ ऐसे लोग हैं, ख़ुद को मानें भूप।
जग को चाहें ढालना, अपने ही अनुरूप।।
सुख़-दुख़ है अनुभूतियाँ, सबको सुख की प्यास।
लेकिन दुख़ के बाद ही, लगता है सुख ख़ास।।
शातिर फ़ितरत के जिन्हें, मक्कारी का रोग।
गली-गली में आजकल, मिलते ऐसे लोग ॥
शाँत और गंभीर है, अपनी प्रकृति विशाल ।
विवश अगर मानव करें, धरे रूप विकराल ॥
है मंदिर के शंख -सी, बेटी की आवाज़।
लगे भौर की आरती, जैसे बजता साज़।।
कर देते बाधा खड़ी, जो राहों में नित्य।
उन लोगों के साथ का, क्या निकले औचित्य।।
होती विपदा में सदा, 'सुधि' सच्ची पहचान।
ला देती है दोस्ती, दुख में भी मुस्कान।।
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