हरेराम समीप के दोहे
क्यों रे दुखिया, क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़।मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज़।।
उस दुखिया माँ पर अरे, कुछ तो कर ले गौर।
तुझे खिलाती जो रही, फूँक-फूँककर कौर।।
पानी ही पानी रहा, जिनके चारों ओर।
प्यास-प्यास चिल्ला रहे, वही लोग पुरजोर।।
आओ हम उजियार दें, ये धरती ये व्योम।
तुम बन जाओ वर्तिका, मैं मन जाऊँ मोम।।
कोई तो सुन ले यहाँ, मेरे दिल का राज़।
सूख गया मेरा गला, दे-दे कर आवाज़।।
इतना ही मालूम है, इस जीवन का सार।
बंद कभी होते नहीं, उम्मीदों के द्वार।।
बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज।
बाद रफू के हो गई, वो दो रंगी चीज।।
फिर निराश मन में जगी, जवजीवन की आस।
चिडिय़ा रोशनदान पर, फिर ले आई घास।।
केवल दुख सहते रहो, यही नहीं है कार्य।
अपने सुख को शब्द भी, देना है अनिवार्य।।
मिलत-जुलते हैं बहुत, अपने अहसासात।
इसीलिए तो कह रहा, सुन ले मेरी बात।।
संशय के सुनसान में, जला-जला कर दीप।
दुख की आहट रात भर, सुनता रहे ‘समीप’।।
कोई तो सुन ले यहाँ, मेरे दिल का राज।
सूख गया मेरा गला, दे दे कर आवाज।।
आखिर अपने दुक्ख का, किसको दें इल्ज़ाम।
जितनी मिलीं तबाहियाँ, सब की सब बेनाम।।
क्या तुमको मालूम है, उपवन में इस बार।
शोले लेकर आई है, शातिर क्रूर बहार।।
दुर्योधन सा वक्त यह, बोल रहा अपशब्द।
वहीं हमारे सूरमा, बैठे हैं नि:शब्द।।
इतना भी बूढ़ा न था, न जमीन थी सख्त।
फिर ऐसा कैसे हुआ, मुरझा गया दरख्त।।
गर्व करें किस पर यहाँ, किस पर करें विमर्श।
आधा है यह इंडिया, आधा भारतवर्ष।।
आने वाले वक्त की, कैसे हो पहचान।
वर्तमान बेचेहरा, यादें लहूलुहान।।
बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज।
बाद रफू के हो गई, वो दो रंगी चीज।।
फिसल हाथ से क्या गिरी, संबंधों की प्लेट।
पूरी उम्र ‘समीपजी’, किरचें रहे समेट।।
जाने कैसे चाह ये, जाने कैसी खोज।
एक छाँव की आस में, चलूँ धूप में रोज।।
क्यों रे दुखिया, क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज।
मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज।।
खाली माचिस जोडक़र, एक बनाऊँ रेल।
बच्चे-सा हर रोज मैं, उसका रहा धकेल।।
अब भी अपने गाँव में, बेटी यही रिवाज।
पहले कतरें पंख फिर, कहें भरो परवाज।।
उस दुखिया माँ पर अरे, कुछ तो कर ले गौर।
तुझे खिलाती जो रही, फूँक-फूँक कर कौर।।
पुलिस पकडक़र ले गयी, सिर्फ उसी को साथ।
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ।।
मरने पर उस सख्स के, बस्ती करे विलाप।
पेड़ गिरा तब हो सकी, ऊँचाई की माप।।
कैसे तय कर पायेगा, वो राहें दुश्वार।
लिए सफर के वास्ते, जिसने पाँव उधार।।
इतना ही मालूम है, इस जीवन का सार।
बंद कभी होते नहीं, उम्मीदों के द्वार।।
फिर निराश मन में जगी, नवजीवन की आस।
चिडिय़ा रोशनदान पर, फिर ले आई घास।।
आओ हम उजियार दें, ये धरती ये व्योम।
तुम बन जाओ वर्तिका, मैं बन जाऊँ मोम।।
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