खान रशीद ‘दर्द’ के दोहे - दोहा कोश

दोहा कोश

दोहा छंद का विशाल कोश

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

खान रशीद ‘दर्द’ के दोहे

खान रसीद ‘दर्द’ के दोहे

राजनीति का ‘धर्म’ क्या, क्या फिर उसकी जात?
रंगी ‘गिरगिट’ रंग में-फितरत उसकी घात।।

अपने ये जनतंत्र में-देखा ‘दर्द’ कमाल।
राजनीति के हाथ की, मारी सभी हलाल।।

हाथ मले जनता विवश, दिखा ‘विधान’ अवाक।
‘कूट-नीति’ कटवा रही-लोकतंत्र की नाक।।

साकी अपना है अजब, गज़ब करे है राम।
देता ‘सूरत’ देख कर-अपनों को नित जाम।।

तन की हड्डी गल गई, गली न फिर भी दाल।
कल थे वैसे आज हैं, वही हाल बदहाल।।

गिरता है जब शाख से, थर-थर करता पात।
रोता है दिल ‘पेड़’ का, देख ‘हवा’ की घात।।

तू मुफलिस है क्यों तुझे, लगे भूख औ' प्यास।
‘गठरा-वादों’ का अदद, रख तू अपने पास।।

दिन से अच्छी है बहुत, ‘काली-काली’ रात।
दामन में रहती लिये, भली-बुरी हर बात।।


कपट, धूर्तता, बैर के, ‘दर्द’ बढ़े हैं वंश।
इसी धरा पर देख लो, व्यापित होते कंश।।
 
समझे गर जो हम नहीं, प्रेम-प्यार का अर्थ।
तमगे और उपाधियाँ, सब के सब हैं व्यर्थ।।

मुश्किल होकर भी लगे, सफर बड़ा आसान।
अजब सफर है जीस्त का, करे सदा हैरान।।

दिल तड़पा जब याद में, आँख हुई फिर झील।
उसमें ‘उसको’ खोजने-निकले मीलों मील।।

धूँ-धूँ करता दिल जला, जि़गर जला निर्धूम।
‘लगन’ लगी की आग में, याद मचाये धूम।।

‘देवी-सी’ पावन हुई, मन की अपने पीर।
छलक उठा जो आँख से, छल-छल करता नीर।।

यार लगन जब ‘प्यार’ की, लेती है विस्तार।
हो जाता है एक दिन, रब का भी दीदार।।

दूर हुए शिकवे-गिले, यार हुए सब एक।
प्यार वफा के रंग का, ऐसा है अतिरेक।।


 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें