डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव के दोहे
मानव ने देखे नहीं, कुदरत के नाखून।
भेड़ समझता है उसे, रोज उतारे ऊन।।
मीठी नदिया झूमकर, पहुँची सागर पास।
खारे जल में जब मिली, जाती रही मिठास।।
मुखर हुए अब शूल सब, सहमा पड़ा गुलाब।
बाग कँटीला हो गया, बिन ख़ुशबू बिन आब।।
कैक्टस क्यारी में लगे, उजड़े सभी गुलाब।
फ़ैशन के इस दौर में, शरबत हुई शराब।।
राजनीति मरुथल जने, जन में मृग-सी प्यास।
भाग-भाग कर थक रही, अच्छे दिन की आस।।
नागफनी के रूप पर, मोहित सभ्य समाज।
मुँह बाये सूरजमुखी, अचरज में है आज।।
सपने नोचे जा रहे, ताड़ी जाती देह।
खोज रही निज देश में, चिड़िया अपना गेह।।
सपने भरमाते रहे, रातों को भरपूर।
आँख खुली बनके हिरण, भागे कोसों दूर।।
सूरज अभियंता बना, रचता सकल जहान।
रोज बनाता-तोड़ता, इतना बड़ा मकान।।
चाँद बिखेरे चाँदनी, सूर्य परोसे धूप।
हाथ पसारे रह गया, अँधियारे का कूप।।
बादल घिरे चुनाव के, उमड़े-घुमड़े ख़ूब।
वादों की बारिश हुई, मन में उगी न दूब।।
मखमल-सी पगडंडियाँ, चलीं उड़ाती धूल।
सीने में पत्थर जड़े, गयीं कुलांचें भूल।।
वर्षों से सब सह रहा, होकर हल्कू मौन।
ऐसे में उसके लिये, लड़े बताओ कौन।।
हैं नफ़रत की आँधियाँ, उजड़े प्रेमोद्यान।
जंगल हँसे बबूल के, पीड़ा तना वितान।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें