नारी ने जब प्रेम के, चढ़े रम्य सोपान ।
डाले सभ्य समाज ने, श्वास-श्वास व्यवधान।।
साहस करुणा दीनता, लिए हृदय में नेह ।
हर घर में हैं नारियाँ, खुशियों का अवलेह ।।
सामाजिक दुर्भाव की, सदियों रहीं शिकार ।
लिंगभेद के और अब, क्यों हों जटिल प्रहार ।।
नारी की नवरात्रि में, होती जय-जयकार ।
पीड़ाएँ हरदिन नई, हैं जिसके उपहार ।।
सदा साँकलें बंद कर, लाज हया के नाम ।
रही घरों में कैद निज, है आधी आवाम ।।
अधर शांत सीले नयन, मुख विषाद की रेख ।
बिन बोले ही बाँचती, पीड़ा के अभिलेख ।।
स्वप्नों को नव पंख दे, ज्यों-त्यों भरे उड़ान ।
दुष्चरित्र कहकर दिये, डाल सदा व्यवधान ।।
गोबर उपलों खेत में, जीवन हुआ व्यतीत ।
नारी के उत्थान के, रहे बेसुरे गीत।।
पीने माली जब लगे, स्वयं जड़ों से नीर ।
निश्चित जानी है बदल, उपवन की तस्वीर ।।
स्वयं सियासत जब करे, कृषकों संग विभेद ।
कहो खेत कैसे पढ़ें, भरे पेट के वेद ।।
जब-जब जीवन पर पड़ी, अवसादों की रेह ।
माँ ने भर निज अंक में, मला मृदुल अवलेह ।।
मौसम देता दंश नित, कहते बंजर खेत ।
लुप्तप्राय जलधार है, दिखे सलिल में रेत ।।
संबंधों में जब कभी, की शंका ने पैठ ।
प्रीति भाव तब मुँह छिपा, गया किनारे बैठ ।।
दृष्टि संकुचित है जहाँ, वहाँ न पनपे नेह ।
संबंधों को ढाँकता, माहुर का अवलेह ।।
अनुभव का आकाश जब, करने लगे विभेद ।
गिरे अंकुरों का वहाँ, रात-दिवस नित स्वेद ।।
संबंधों पर डालकर, कड़ी करकरी रेत ।
छिन्न-भिन्न करता सदा, खल कुंठा का प्रेत।।
काम, क्रोध, मद, लोभ हैं, चार भयंकर रोग ।
फिर भी इस में ही 'अना', फँसे जगत के लोग ।।
वर दहेज़ की रीति को, दे यदि स्वयं नकार ।
अभिभावक की सोच में, होगा तभी सुधार ।।
जीवन बीते धूप में, बेरंगे सब चित्र ।
सदा पिसा मजदूर है, सामंती में मित्र ।।
जीवन की शाला अजब, अपठित सारे पाठ ।
जब-जब खोले पृष्ठ नव, हरदम मारा काठ ।।
बाँट रहे हैं द्वेष जो, नित्य धर्म के नाम ।
तत्क्षण ही उनकी कसे, मिलकर देश लगाम ।।
सिलबट्टा कोने पड़ा, बिसरे चक्की गीत ।
खूँटी आला ताख का, दौर गया है बीत ।।
घट-घट में नफरत भरे, जो बाँटे वह नीति ।
मुझे नहीं स्वीकार है, ऐसी कोई रीति ।।
आश्वासन देती रही, कैसी यह सरकार ।
हुआ पूर्ण क्या एक भी, मिलकर करें विचार ।।
मातहतों को डस रहे, सुन शाहों की बीन ।
उच्च पदों पर आज जो, व्याल हुए आसीन ।।
पुत्र लालसा ने किया, कैसा बंटाधार।
कन्याओं का गर्भ में, नित होता संहार ।।
माया की अति लालसा, करे बुद्धि को क्षीण ।
मद में अन्धे हो गये, अनगिन यहाँ प्रवीण ।।
तनी ताड़ सी लालसा, वक्र समय की रेख।
नवल पौध पर लिख रही, अवसादी आलेख ।।
करते खबरनवीस नित, जनता संग फरेब ।
जब से पहनी पाँव में, सत्ता की पाज़ेब।।
गीत छापते हम नहीं, व्यक्त कर दिया खेद।
सम्पादक जी कर रहे, रचना संग विभेद।।
जीते जी जिसने न दी, सूखी रोटी साग।
वही पुत्र अब श्राद्ध पर, जिमा रहा है काग।।
छूने में होगी सफल, आसमान के छोर।
बेटी की यदि आज से, ज़रा ढील दें डोर।।
कविता केवल हो नहीं, दुख का दस्तावेज ।।
सुख को भी शामिल करें, शब्दों के रंगरेज।।
कविता के वश में लगे, सँभव यह संधान।
अक्षर-अक्षर फूँक दे, मानवता में जान।।
कितने भी हों आप में, सब टैलेंट फ़िज़ूल ।
फ़र्राटा जब भर रहा, चाटुकारिता टूल।।
बॉडी शेमिंग कर रहे, बिन सोचे हम-आप।
रंग, वजन के साथ ही, कद काठी को माप।।
प्यासा यदि छू ले यहाँ, होता घड़ा अछूत।
पहुँच गये हम चाँद पर, लेकर अहं अकूत।।
इच्छाओं के पॉट में, खिल कब सके गुलाब।
औरत संग हर पल रहे, देहरी के गिर्दाब।।
छल-बल से कितने यहाँ, सुलगे द्वेष अलाव।
बिकी दिलावर हाथ से ,कितनी ही उमराव।।
कदम-कदम अवरोध हैं, साँस-साँस व्यवधान।
नारी के अधिकार के, तिर्यक हैं सोपान।।
दिखे फिरोजाबाद में, अनगिन मुखड़े ज़र्द।
भट्टी में पिघली हुई, खन-खन का ले दर्द।।
आँखों ने दी प्रेम की, केवल इतनी फीस।
जाग-जागकर काटतीं, यादों के कटपीस।।
किया किसी ने आज तक, इस पर भी क्या खेद।
विधवा ने जब लोक से, पाया रंग सफ़ेद।।
घुँघरू की धुन में दबे, पीड़ा के अभिलेख।
सुने कभी किसने भला, किन्नर टोली देख।।
व्यवधानों ने भी लिया, सहम वहाँ मुँह मोड़।
साहस इच्छा-शक्ति का, हुआ जहाँ गठजोड़।।
मुट्ठी भर ने जब किए, जड़ताओं पर शोध।
पग-पग पर सहना पड़ा, उनको कड़ा विरोध।।
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