सुरा-सुंदरी में रहा, डूबा सारी रात।
वही उजालों में करे, मर्यादा की बात।।
पाला लाठी मानकर, लाठी मारे आज।
छुप-छुप रोये अब पिता, बचा जगत में लाज।।
बिलख रही माँ भूख से, बहू ऊड़ाए खीर।
दिल पर चलती छेनियाँ, नैन बहाए नीर।।
धन-दौलत को देखकर, आया मन में खोट।
बेच दिया ईमान को, लेकर प्रभु की ओट।।
खिसक लिए चुपचाप वो, देकर हमको चोट।
सोना समझा था जिसे, उसमें निकला खोट।।
बेच रहे हैं देश को, अपने बन गद्दार।
भारत माँ कैसे सहे, अपनों के ही वार।।
लाज-शर्म औ' शील तो, नारी का सम्मान।
भूल गई क्यों नारियाँ, अपनी ही पहचान।।
नेता सेकें रोटियाँ, सुधिजन धारे मौन।
कमसिन कलियाँ लुट रही, लाज बचाए कौन।।
पत्थर को हम पूजते, जिन्दा को दुत्कार।
भूखे को रोटी नहीं, पाहन पहने हार।।
सोये निज-हित ओढ़ सब, कौन सुनेगा पीर।
रिश्ते-नाते हो गए, अब नदिया के तीर।।
पुत्र बना बहरूपिया, लूट रहा है चैन।
मात-पिता तारे गिनें, काटे कटे न रैन।।
निर्धनता से जूझता, मरता रोज किसान।
नित्य सुनाते हैं नये, नेताजी फरमान।।
मानवता का कर रहे, नेताजी आखेट।
साँसें गिनता रंक तो, लेकर खाली पेट।।
कौन खरा संसार में, मुश्किल है पहचान।
ओढ-मुखौटा घूमता, अब तो हर इन्सान।।
गांधारी का रूप धर, लचर हुआ कानून।
दुर्योधन ने कर दिया, मर्यादा का खून।।
कैसे दुर्दिन आ गए, देखो हे! भगवान।
जिन्दा को रोटी नहीं, कागा को पकवान।।
जग में लंपट का लगा, जिसके दामन दाग।
नैतिकता का भी वही, निश-दिन छेड़े राग।।
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