प्रदीप दुबे 'दीप' के दोहे - दोहा कोश

दोहा कोश

दोहा छंद का विशाल कोश

रविवार, 15 जनवरी 2023

प्रदीप दुबे 'दीप' के दोहे

प्रदीप दुबे 'दीप' के दोहे

होरी बैठा खेत में, डंठल रहा सकेल।
बूटे-बूटे खा गए, राजाजी के बैल।।

कहां प्रीत की माधुरी, कहां नेह की गंध।
मुंहदेखे की बतकही, सुविधा के संबंध।।

कांटों को सुख सम्पदा, कुसुमकली को पीर।
लिखा करो मत रामजी, गुस्से में तकदीर।।

है छोटे किस हाल में, अब बाड़े का बेर।
अम्मा के रोपे हुए, पीले-लाल कनेर।।

इतना प्यारा था अगर, छोड़ दिया क्यों ग्राम।
पूछा करते ग्राम के, जामुन,पीपल,आम।।

सिरजा था जिनके लिए, तिनका-तिनका जोड़।
पंख मिले तो उड़ गए, वही घोंसला छोड़।।

बुरे दिनों की आंधियां, उसको गई फफेड़।
आखिर जड़ से टूटकर, गिरा पुराना पेड़।।

आशा तो है एक दिन, आयेगी वह नाव।
बिठा हमें ले जायगी, सपनों वाले गांव।।

लगा गई एक मोंगरा, बिटिया तुलसी पास।
याद बहुत आती रहे, जब-जब उड़े सुवास।।

नदी भरोसे पर रही, लुटता रहा निकेत।
उसका पानी पी गई, उसकी अपनी रेत।

यादों की मीठी किरच,रोते आंगन डाल।
बिटिया मेरी लाड़ली,चली गई ससुराल।।

भैया! आंगन बांटले, उठवाले दीवार।
अपनापन आ-जा सके, रख लेना इक द्वार।।


गोरे दिन से मिल रही,गले सांवली शाम।
सूरज दादा चल दिए,सकुचाकर गृहग्राम।।

खुश हो जाओ मेमनो,अभी मौत में देर।
शाकाहारी हो गए,मत पड़ने तक शेर।।

हुआ सदन में शोरगुल,बहस चली दस रोज।
मुद्दा क्या था,कर रहा,अन्वेषण दल खोज।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें