रामनरेश 'रमन' के दोहे
अपने पैरों आदमी, रहा कुल्हाड़ी मार।अंधा होकर कर रहा, पेड़ों का व्यापार।।
कुछ तो ऊँचे उड़ गए, कुछ बेबस लाचार।
देते कोरी सांत्वना, सत्य नहीं स्वीकार।।
सदुपयोग कर शक्ति का, बनता नर इंसान।
दुरुपयोग करके वही, बन जाता हैवान।।
वैसे तो शुभ काल में, सबको मिलें अनेक।
ताकत बढ़ती चौगुनी, मिले मित्र यदि नेक।।
द्रवित दुखी को देखकर, होते हैं जो लोग।
उनका परिचय शब्द सब, सज्जन करें प्रयोग।।
जनता के दिल को नहीं, जब मिल सके सुकून।
तो फिर है किस काम का, बना हुआ कानून।।
कोरी बातों से कभी, भरा नहीं है पेट।
करो सत्य स्वीकार अब, छोड़ो झूँठ लपेट।।
नियम बने हैं टूटते, भ्रष्ट हुआ है तन्त्र।
तभी अराजक तत्व सब, घूमें यहाँ स्वतन्त्र।।
कठिन जिन्दगी जी रहे, धरतीपुत्र किसान।
उन पर ही गोली चलें, क्या होगा भगवान।।
सीमा पर सैनिक मरें, घर में मरें किसान।
कैसे भारत भूमि पर, सुख पाये इंसान।।
चली गोलियों से गए, कृषक काल के गाल।
धरती माँ की गोद भी, हुई खून से लाल।।
सीमा पर सैनिक सजग, तब हम यहाँ स्वतन्त्र।
बरना घातक दौर से, गुजर रहा जनतन्त्र।।
शकुनी
की चालाकियाँ, कर जाती हैं काम।
मगर भयानक अन्त में, होता है परिणाम।।
कुदरत की नाराज़गी, महँगे बीज विधान।
राजनीति छल कर रही, क्या-क्या सहे किसान।।
त्यागी हुए गृहस्थ अब, मायामय संन्यास।
बदल रहे हैं मायने, बदलेगा इतिहास।।
कब हो जाए हादसा, आशंका दिन-रात।
शाम बहकते नित मिले, गुमसुम दिखे प्रभात।।
ऊँचा क़द होता गया, हत्यारे का ख़ास।
पाप-पुण्य का अब उसे, हो कैसे अहसास।।
सरल बने रहना कठिन, क़दम-क़दम व्यवधान।
टेढ़ी राहों के लिए, टेढ़े सभी निशान।।
गर्मी वर्षा शीत से, सम्मुख लड़े किसान।
श्रम के बदले दे धरा, अन्न उपज का दान।।
जब-जब आया भेड़िया, पहन भेड़ की खाल।
चतुराई से कर गया, कुनबे को कंगाल।।
छलनी में जितने नहीं, मिलकर सारे छेद।
विज्ञ-जनों के बीच में, अब इतने मतभेद।।
कैसे हो अब आकलन, किसके कौन निशान।
अपनों में मुश्किल हुई, अपने की पहचान।।
एक-एक कर जा रहे, दिवस महीने साल।
बुनता ख़ुद को आदमी, मकड़ी जैसा जाल।।
काट पाँव की बेड़ियाँ, मुलज़िम हुआ फ़रार।
रूप बदलकर आ गया, आका के दरबार।।
कंकड़ अपनी ओर से, सब ही रहे उछाल।
कीचड़ कैसे साफ़ हो, यह है मुख्य सवाल।।
मगर भयानक अन्त में, होता है परिणाम।।
कुदरत की नाराज़गी, महँगे बीज विधान।
राजनीति छल कर रही, क्या-क्या सहे किसान।।
त्यागी हुए गृहस्थ अब, मायामय संन्यास।
बदल रहे हैं मायने, बदलेगा इतिहास।।
कब हो जाए हादसा, आशंका दिन-रात।
शाम बहकते नित मिले, गुमसुम दिखे प्रभात।।
ऊँचा क़द होता गया, हत्यारे का ख़ास।
पाप-पुण्य का अब उसे, हो कैसे अहसास।।
सरल बने रहना कठिन, क़दम-क़दम व्यवधान।
टेढ़ी राहों के लिए, टेढ़े सभी निशान।।
गर्मी वर्षा शीत से, सम्मुख लड़े किसान।
श्रम के बदले दे धरा, अन्न उपज का दान।।
जब-जब आया भेड़िया, पहन भेड़ की खाल।
चतुराई से कर गया, कुनबे को कंगाल।।
छलनी में जितने नहीं, मिलकर सारे छेद।
विज्ञ-जनों के बीच में, अब इतने मतभेद।।
कैसे हो अब आकलन, किसके कौन निशान।
अपनों में मुश्किल हुई, अपने की पहचान।।
एक-एक कर जा रहे, दिवस महीने साल।
बुनता ख़ुद को आदमी, मकड़ी जैसा जाल।।
काट पाँव की बेड़ियाँ, मुलज़िम हुआ फ़रार।
रूप बदलकर आ गया, आका के दरबार।।
कंकड़ अपनी ओर से, सब ही रहे उछाल।
कीचड़ कैसे साफ़ हो, यह है मुख्य सवाल।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें