डॉ. सुरेश अवस्थी के दोहे - दोहा कोश

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रविवार, 15 जनवरी 2023

डॉ. सुरेश अवस्थी के दोहे

डॉ. सुरेश अवस्थी के दोहे

सन्ध्या रोयी रात भर, लेकर चाँद-रुमाल।
सूरज से करती रही, सीधे तल्ख़ सवाल।।

कुहरे ने ऐसे किये, शीतल कठिन कसाव।
पेट-पीठ तक कँपकपी, पानी हुए अलाव।।

छत पर चढ़ जो मारते, सीढ़ी को ही लात।
जीवन में बनती नहीं, उनकी बिगड़ी बात।।

यह भी उसका ख़ास है, वह भी उसका ख़ास।
सबसे काम निकाल ले, जादू उसके पास।।

धरती के सूखे अधर, नदी-ताल बीमार।
धूप-धनुष टन्कारती, सूरज करे शिकार।।

वर्षा करके आग की, जल भी लिया निचोड़।
सूरज से धरती कहे, अब तो गुस्सा छोड़।।

धूप सयानी हो गयी, बौनी होती छाँव।
मालरोड पर खोजते, खोया अपना गाँव।।

क़ाबिज़ हैं गोदाम पर, मिस्टर सत्यानाश।
'सवा सेर गेहूँ' नहीं, 'प्रेमचंद' के पास।।

हाथ-पाँव अकड़न भरे, जकड़न पकड़े कान।
पिघला गर्व पहाड़ का, काँप रहे मैदान।।

सूरज गठरी बन पड़ा, ओढ़े धुंध-लिहाफ़।
हाथ जोड़ पौधे कहें, शीत करे अब माफ़।।

पर्वत संन्यासी हुए, बने तपस्वी पेड़।
सर्दी सिर पर नाचती, ऊन माँगती भेड़।।

धूप गुनगुनी आ गयी, सरपट भागी शीत।
गगन, धरा, पौधे सभी, बने धूप के मीत।।

कुहरा तानाशाह है, घूम रहा स्वच्छन्द।
सूरज चुप बैठा कहीं, किये खिड़कियाँ बन्द।।


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