डॉ. जे पी बघेल के दोहे
ठंड गई, ठंडी भई, अब अलाव की आग।तन-तन मन-मन में जगी, फागुन के गुन, फाग॥
बंब बजी, ढोलक बजी, बजे ढोल ढप चंग।
फागुन की दस्तक भई, थिरकन लागे अंग॥
होरी आई मधु भरी, बूढ़े भये जवान ।
रसिया भये अनंग के, मारक तीर कमान॥
गली-गली टोली चलीं, उड़त अबीर गुलाल।
हुरियारे नाचत चलत, ठुमकि ताल बेताल॥
तब की होरी में मिले, चाही सबकी खैर।
अब की होरी में ठनी, उभरे मन के बैर॥
ब्रज की होरी के रहे, अजब निराले ढंग।
कहीं-कहीं महफिल जमीं, कहीं-कहीं हुड़दंग॥
होली-उत्सव नागरी, लोक-पर्व है धूल ।
ब्रज में होली धूल है, लोक न पाया भूल॥
निर्धन दुखिया, धन बिना, धनिक दुखी, धन हेतु।
इनकी धड़-गति राहु सी, उनकी सिर-गति केतु॥
धन के बिन घरनी दुखी, दुखिया सधन ग्रहस्थ।
वर भी वही वरेण्य जो, धनपति, राज-पदस्थ॥
धन आए लालच बढ़ा, पद पाए अभिमान।
जिनका मन पर सन्तुलन, वे नर देव समान॥
धन पाए नीयत गई, पद पाए ईमान।
धन पद बिना बघेल कब, कहा गया इन्सान॥
धन था नीयत नेक थी, धन की हुई न वृध्दि।
पद भी था, ईमान भी, आई नहीं समृध्दि॥
धन साधन ऊँची पहुँच, या कि निकट सम्पर्क।
गलत सही सच भी सही, झूठे तर्क वितर्क॥
श्रम, संयम के योग से, रचे गये इतिहास।
भोग, असंयम ने किये, संस्कृतियों के नाश॥
साँठ गाँठ कर बच गया, था जिसका सब दोष।
अपराधी घोषित हुआ, बैठा जो खामोश॥
एक तरफ जनता खड़ी, एक तरफ थे सेठ।
शासन सारा सेठ के, गया चरण में लेट॥
मन्दिर में की दण्डवत, ली गरीब की जान।
मैं बघेल समझा नहीं, क्यों खुश था भगवान॥
मन्नत क्यों पूरी हुई, कर बकरे कुरबान।
क्यों बघेल सुनता नहीं, करुण चीख रहमान॥
बोली तो बोली रही, झरती रही मिठास।
बोली भाखी, बन गई, भाषा का इतिहास॥
प्रतिभा झोली में लिए, मत भारत में डोल।
कर जुगाड़ परदेश चल, वहीं मिलेगा मोल॥
जीवित है इस देश में, जाति-वंश-कुल वाद।
किशनलाल की दिग्विजय, किसे आ रही याद॥
तन के हैं सुन्दर बहुत, मन के बड़े मलीन।
राजमहल तो पा गए, रहे सम्पदा-हीन॥
जमुना में विष घुल गया, उठे कालिया जाग।
तीर तीर काबिज हुए, फिर से नागर नाग॥
जहाँ जहाँ घी दूध का, भारत में व्यवसाय।
भैंस तबेलों में मिली, गोशाला में गाय॥
बिना दूध की भैंस को, खूँटे पर ही घास।
गाय दुधारू दीखती, कचरे के भी पास॥
मलिन देह के मैल से, पैदा हुए गणेश।
धन्य हमारी बुध्दि को, धन्य हमारा देश॥
नर धड़ जीवित हो गया, धर हाथी का शीश?
कैसे झूठ पचा गए, कोटिक रंक रईस?
कितना भी होवे बड़ा, चूहे का आकार ।
कैसे ढो सकता कहो, गज-मानव का भार?
सिर हो हाथी का तथा, शेष मानवी अंग।
कैसे बैठेगा कहो, उस तन मन का संग?
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