डंडा लखनवी के दोहे
इस व्यापारिक जगत में, खूब करें व्यापार।प्यार न$कद कर लीजिए, रखिए रार उधार॥
भाग्य भरोसे सिरफिरे, पछताते चुप बैठ।
खोजन वारे पा गए, गहरे पानीपैठ॥
ज्यों-ज्यों शहरीपन बढ़ा, वन का त्यों-त्यों अंत।
गमलों में बैठा मिले, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
ठगे-ठगे ही रह गए, लखकर मनुज-विशेष।
चुंबकीय आवेशमय, कंचन रूप-निवेश॥
‘डंडा’ कैसे रहेगा, वह रिश्ता महफूज़।
बीवी नन्हीं रसभरी, मगर मियाँ तरबूज॥
मानवीय व्यवहार का, परिशोधक है धर्म।
पुष्ट किया करते जिसे, शील और सत्कर्म॥
माने हैं धर्मार्थ के, करना अच्छे कर्म।
अर्थ लगाया जगत ने, अर्थ पोसना धर्म॥
धर्मवाद के पौध में, जातिवाद की खाद।
जड़ता पर जड़ता चढ़ी, अच्छा पूँजीवाद॥
सार्वजनिक संपत्ति पे, मूँछ रहे वो ऐंठ।
सडक़–पार्क-पुल पर बढ़ी, पाखंडी घुसपैठ॥
वर्ण-व्यवस्था को करें, कैसे सब स्वीकार?
क्रीमीलेयर धर्म में, खुद है भ्रष्टाचार??
कभी धर्म-खाते चढ़े, चेक तो करो डिटेल।
खुल जाएंगे आप ही, आरक्षण के खेल॥
आरक्षण का स्रोत है, वर्णवाद का कूप।
देता कुछ को नीर ये, कुछ को कर्कश धूप॥
आफिस में स्वीपर लगा, टमप्रेरी सरवेंट।
बदबू जो फैला रहे, वे सब परमानेंट॥
कोई करता गंदगी, कोई करता साफ।
अच्छा यह इंसाफ़ का, पक्का पावर-आफ?
शोषण-भ्रष्टाचार का, बहुत पुराना यार।
दोनों खाल गरीब की, मिलकर रहे उतार॥
’डंडा’ भ्रष्टाचार है, धुर संक्रामक रोग?
लघु तो लघु संक्रमित हैं, बड़े चिकित्सक लोग??
कृपया ख़ुद भी जाँचिए, दिल के दस्तावेज़।
अंकित भ्रष्टाचार के, जहाँ सेल-परचेज़॥
होता भ्रष्टाचार का, पल में काम तमाम।
बड़ों-बड़ों के मुँहलगी, होती न जो हराम॥
भ्रष्टाचार-विरोध की, बजे गज़ब की ढोल।
शोषण की चक्की करे, आठों पहर किलोल??
कुर्सी-कामी साधना, सत्ता-झपटो मंत्र।
लोकतंत्र की राह में, पसरा जंगलतंत्र॥
वोटर का कसकर गला, रही अशिक्षा घोट।
’डंडा’ ग्राम दबंग हैं, पकड़े वोट रिमोट॥
सत्ता जब-जब छीनती, जन-मौलिक-अधिकार।
तब-तब होती है नई, दलित पौध तैयार॥
राजनीति के घाट पर, काँव-काँव क्या खूब?
जनता की गाढ़ी र$कम, गई बहस में डूब??
पद-प्रभुता के लोभ में, वे बन गए दधीच।
देहदान की आन पर, गए किनारा खींच॥
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