योगेन्द्र दत्त शर्मा के दोहे  - दोहा कोश

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शनिवार, 14 जनवरी 2023

योगेन्द्र दत्त शर्मा के दोहे 

योगेन्द्र दत्त शर्मा  के दोहे 

प्राकृत से संस्कृत हुआ, संस्कृत से अपभ्रंश।  
यह मन सहता ही रहा, मुस्कानों के दंश।।

देखा मैंने आपका, नया निराला ढंग।      
मुझे देखकर आपका, उड़ जाता क्यों रंग।।

तुम हंसों की पांत में, रहे एक ही काग।    
तुमने गाया उम्रभर, वही बेसुरा राग।।

मैंने तोड़ा मौन को, तू भी अब कुछ बोल।  
बीत न जायें व्यर्थ ही, ये घडिय़ाँ अनमोल।।

मन पर रख ली है शिला, भुला दिये सब रंग।
अब खामोश समुद्र में, उठती नही तरंग।।

जो मन पर गहरे छपे, धुँधलाये वे चित्र।    
विदा हुए कब के सखा, परिचित गहरे मित्र।।

तूने जोड़ा उम्र-भर, केवल गलत हिसाब।
नहीं जि़न्दगी की पढ़ी, तूने कभी किताब।।

हो लें भले विरोध में, सब के सब एकत्र।  
ढक न सकेंगे सूर्य को, मिलकर भी नक्षत्र।।

दिन उर्वर था, पर घिरी, बादल वाली साँझ।  
तारे उगे न चन्द्रमा, रात बाँझ की बाँझ।।

हमने लिखे वसंत पर, कुछ बासी मज़मून।  
हमें न चल पाया पता, कैसे खिले प्रसून।।
                           

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