मनीष कुमार झा के दोहे
एकलव्य यों कर रहे, गुरुकुल में अभ्यास।
तोड़ अँगूठा द्रोण का, बदल रहे इतिहास।।
खर, दूषण, मारीच की, महिमा रहे बखान।
रघुवर के दरबार में, कालनेमि दरबान।।
राजनीति से नीति यों, लुप्त हो गयी मीत।
डिब्बे वाले दूध में, ज्यों विलुप्त नवनीत।।
विकट आपदा आ पड़ी, हाय लगा आघात।
चोट खा गयीं उँगलियाँ, ज़ख्मी हैं जज़्बात।।
लहू लगाये चोंच में, उड़ा कबूतर आज।
गिद्ध-चील सब छिप गये, लगे काँपने बाज।।
आज सुनाती है हवा, इस मौसम की रीत।
आँत आग से लिख रही, रोटी के नवगीत।।
जैसा जिसका भाव था, वैसा मिला जवाब।
काँटा उसके हाथ था, मेरे हाथ गुलाब।।
वोट बैंक को देखकर, चली सियासी चाल।
आँसू लेकर आ गया, बस्ती में घड़ियाल।।
बेबस चिड़िया किस तरह, भरे यहाँ परवाज़।
आसमान में हर तरफ़, घूम रहे हैं बाज़।।
कुत्ते के आतंक से, उड़ा हुआ था होश।
किया भरोसा स्वयं पर, बच निकला खरगोश।।
सदमे में आधार है, छत भी है लाचार।
बाँट रही परिवार को, नयी बनी दीवार।।
तुलसी विस्थापित हुई, बरगद है लाचार।
शहर गाँव तक आ गया, लेकर निज व्यवहार।।
सिसक रही अमराइयाँ, बिलख रही है कूक।
सिर्फ़ वही ख़ुशहाल है, जिसने चाटा थूक।।
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