डॉ० जगदीश व्योम के दोहे
हंस ताल से उड़ गया, कांँप गया शैवाल|लहरों की धड़कन बढ़ी, व्यग्र हो गया ताल||
हारिल बैठा खेत में, लकड़ी दाबे पांँव|
ज्यों कोई परदेश में, रखे सहेजे गाँव||
पीपल त्रिपिटक बाँचता, पीपल गाता गीत|
पीपल सबको बाँटता, साँसों का संगीत||
पीपल उगता हर जगह, छत हो या दीवार|
ऐसे औघड़ सन्त को, कौन सकेगा मार||
पीपल जब-जब चुप हुआ, तब-तब पसरा मौन|
बूढ़े पीपल की व्यथा, समझे आखिर कौन||
बन बुजुर्ग करता रहा, पीपल हमसे प्यार|
खड़ा गाँव के छोर पर, बनकर पहरेदार||
चिड़ियों को आश्रय मिले, राहगीर को छाँव|
भारत की पहचान हैं, पीपल वाले गाँव||
पीपल के नीचे मिला, बड़े-बड़ों को ज्ञान|
गीता में भी कृष्ण ने, इसको कहा महान||
किसकी बर्बादी हुई, कौन हुआ आबाद|
पीपल करता रात भर, पत्तों से संवाद||
पिद्दी सा है वायरस, पर्वत सा कुहराम|
बैठे ठाले हो गई, सबकी नींद हराम||
सारस बैठा खेत में, सारसनी के संग|
चोंच मिलाकर कर रहे, दोनों झूठी जंग||
कोरोना का काल है, कर लो जमकर योग|
सावधान होकर चलो, नहीं लगेगा रोग||
आज़ादी के हो गये, पूर्ण तिहत्तर वर्ष|
कोरोना ने कर दिया, फीका फीका हर्ष||
सुख सुविधा अपनी जगह, स्वर्गिक सा परिवेश|
रहे प्रवासी उम्र भर, भूल न पाये देश||
आहत है संवेदना, खंडित है विश्वास|
जाने क्यों होने लगा, संत्रासित वातास||
कुछ अच्छा कुछ है बुरा, अपना ये परिवेश|
तुम्हें दिखाई दे रहा, बुरा समूचा देश||
जब-जब किसी अपात्र का, होता है सम्मान|
तब-तब होती सभ्यता, दूनी लहू-लुहान||
बौने कद के लोग हैं, पर्वत से अभिमान|
जुगनू भी कहने लगे, खुद को ही दिनमान||
कविता निर्वासित हुई, कवियों पर प्रतिबंध|
बाँच रहे हैं लोग अब, लूले-लँगड़े छंद||
कौन भला किससे कहे, कहना है बेकार|
शकरकंद के खेत के, बकरे पहरेदार||
बदला बदला लग रहा, मंचों का व्यवहार|
जब से कवि करने लगे, कविता का व्यापार||
कविता के बाजार में, घसियारों की भीड़|
शब्द भटकते फिर रहे, भाव हुए बेनीड़||
मन की गहरी पीर को, भावों में लो घोल|
गीत अटारी में चुनों, शब्द-शब्द को तोल||
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