सीमा अग्रवाल के दोहे
दोहे ऐसे बांधिए, जैसे सुरभित फूल।ईश चरण वंदन करे, भाव लिए अनुकूल।।
मधुर वचन है सेतु सम, जोड़े उर के तार।
दो कूलों के मध्य ज्यों, बहती निर्मल धार।।
आशा और विश्वास हंै, जीवन के दो स्तंभ।
हर पग पर इक अंत है, हर पग इक आरम्भ।।
शंकित मन ना गुन सके, क्या सच है क्या झूठ।
नेह वृक्ष शंका तले, बन जाते हैं ठूँठ।।
तीन शत्रु सम्बन्ध के, इनको रखिये याद।
उपालम्भ, आलोचना, तीजा है परिवाद।।
कैसे गूंजे प्रीत सुर, कैसे थिरके देह।
भूखे चूल्हे में पके, जब अकुलाई देह।।
जिस घर जल बरसा नहीं, बरस रहे हैं नैन।
क्या सावन क्या तीज हो, जब जीवन बेचैन।।
परिचर्चा परिवाद में, बस इतना है भेद।
प्रथम ज्ञान विस्तृत करे, दूजे से हो खेद।।
मन था ऐसा बावरा, उड़ता था चहुँ ओर।
कलम गही जब हाथ ने, पाय गया यह ठौर।।
अमर बेल से बढ़ रहे, ढोंगी के दरबार।
वृक्ष कटें दिन रात अब, जो हैं प्राण आधार।।
तरु को पालो प्रेम से, देंगे दुगना प्रेम।
स्वच्छ वायु फलफूल से, परिपूरित सुख क्षेम।।
बाढ़ कभी भूकंप है, और कभी अतिवृष्टि।
संकेतों में ही अभी, समझाती है सृष्टि।।
बूँद-बूँद भी कीमती, नीर बहुत अनमोल।
नीर बिना नीरव धरा, कर ले इसका मोल।।
ज्ञान गठरिया सर धरो, जिम्मेदारी संग।
सुरभित हर जीवन करो, छिडक़ प्रीत के रंग।।
ज्योत जला कर ज्ञान की, जग में करे प्रकाश।
नमन करूँ उस ज्ञान को, जो हरता तम पाश।।
बैठा धन के ढेर पर, क्यों इतराए ‘जाग’।
जनम अकारथ ही रहे, बिना ज्ञान अनुराग।।
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