संध्या सिंह के दोहे  - दोहा कोश

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

संध्या सिंह के दोहे 

संध्या सिंह के दोहे 

रुई रुई अनुभूतियाँ, सूत शब्द का जाल।
कलम जुलाहे सी बुने, अंतर्मन का हाल।।

कर्तव्यों के शिखर पर, सपनों का संन्यास।
देह थिरकती जश्न में, मन भोगे वनवास।।

तन-मन के व्यवहार में, अजब विरोधाभास।
तन धरती का एक कण, मन अम्बर का व्यास।।

लहर-लहर संवेदना, बूँद-बूँद जज़्बात।
दर्द समंदर हो गया, मन पूनम की रात।।

मन तो खुली कपास है, उड़े गगन के पार।
लेकिन तन को बांधता, चरखे का संसार।।
 
भीतर दुख़ का मौन है, अधर हुए वाचाल।
देह बसन्ती दिख रही, मन पतझड़ की डाल।।

मन करता मनमानियां, भोगे दंड शरीर।
मन के काँधें पंख हैं, तन के लिए लकीर।।

सपने तट पर रह गए, थामे मन का हाथ।
समय नदी सा बह गया, लिए देह को साथ।।

तन सूरज के हुक्म का, दिन भर रहे गुलाम।
मन चंदा से रात भर, बाँटे दर्द तमाम।।

कुछ पल घूँघरू से बजें, कुछ ढोलक पर थाप।
मन की सरगम ले रही, यादों का आलाप।।
 
बिना शब्द के प्रेम हो, प्रेम बिना संवाद।
नयन-नयन के बीच हो, हर भाषा अनुवाद।।

अद्भुत मेला प्रेम का, अनुपम ये बाज़ार।
हर कोई बिन मोल के, बिकने को तैयार।।

राई पर्वत हो गयी, हुए तिलों के ताड़।
सुई बराबर तर्क ने, रिश्ते दिए उखाड़।।

शब्दों का सागर लिया, भावों का आकाश।
धरती का पन्ना लिया, खुद की करूँ तलाश।।

क्रोध अहम की बाढ़ में, टूट गए तटबंध।
तर्क बहस की धार से खंड खंड सम्बंध।।

नारी को उपमा मिली, सुविधा के अनुसार।
कभी स्वर्ग की अप्सरा, कभी नर्क का द्वार।।

नारी वसुधा का रहा, सदा एक व्यवहार।
ऊपर परतें बर्फ की, भीतर हैं अंगार।।

नारी के बदले नियम, आँधी बनी उसूल।
सर के ऊपर उड़ रही, अब पैरों की धूल।।

खलनायक सा हो गया, कुहरे का व्यवहार।
धरा-सूर्य के प्रेम में, बन बैठा दीवार।।

मदिरालय से मेघ हैं, बूँद बूँद में सोम।
नृत्य दिखाती दामिनी, जश्न मनाता व्योम।।

सागर ने तो भेज दी, अपनी जल जागीर।
अब बादल के हाथ है, प्यासे की तकदीर।।

व्यर्थ मरुस्थल कर रहे, बरखा की अरदास।
सागर अपने मेघ से, बुझा रहा खुद प्यास।।

चंदा दस्तक दे रहा,  तारे दें आवाज़।
ढलता सूरज कर रहा,  रजनी का आगाज़।।

जिसमे रहना था सदा, बिटिया को खुशहाल।
देश समूचा हो गया, हिंदी की ससुराल।।

बहू देश की साल भर, बैठी घूंघट डाल।
मुंह दिखलायी एक दिन, हिंदी हुई निहाल।।

गूढ़ पहेली जि़न्दगी, एक अबूझ सवाल।
खुद को खुद में फांसता, मन का मक्कड़ जाल।।

पैरों में पहिये लगे, धरती बनी ढलान।
देह बटोही हो गयी, आवारा मन प्रान।।

शब्द निरर्थक हो गये, पृष्ठ पड़े सुनसान।
मौन-गगन में भर रहा, पंछी प्रेम-उड़ान।।

भीतर गहरा द्वेष है, ऊपर प्रेम प्रगाढ़।
तारीफों के पुल तले, निंदाओं की बाढ़।।

समय समय की बात है, समय समय की चाल।
सुख में सरपट दौड़ता, दु:ख में रेंगे काल।।


 

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