रजनी मोरवाल के दोहे
रिश्तों में सीलन भरी, फिर दरकी दीवार।आँगन में उगने लगी, तब से खरपतवार।।
$कत्ल हुआ है शहर में, चर्चा है ये आम।
मज़हब की ये मौत थी, और लाश बेनाम।।
प्रेम ढूँढता रह गया, संवादों के अर्थ।
कही अनकही हो गई, शब्द हुए असमर्थ।।
दर्द मिला तो हो गया, जीने का सामान।
चाक जि़गर ने कर दिया, जीवन ही आसान।।
उम्रदार पत्ते गिरे, हरियाए नव पात।
रात बीतती है तभी, आता नया प्रभात।।
मिला डायरी में मुझे, रंग उड़ा-सा फूल।
आज कसक फिर दे गया, प्रथम प्यार का शूल।।
फागुन फिर आया सखी, ओढ़ प्रीति का रंग।
फागुन-फागुन हो रही, धरती फागुन संग।।
करवट-करवट जागते, नर्म सेज पर नैन।
शहरों में गुम हो गया, गुदड़ी वाला चैन।।
तेरी चाहत में हुए, हम कितने मजबूर।
तुझसे तो हम दूर थे, अब ख़ुद से भी दूर।।
प्रेम न सूरत देखता, प्रेम न देखे रंग।
प्रेम लगन जिस तन लगे, नाचे मस्त-मलंग।।
उनके तानों से बढ़ा, मेरा तो विश्वास।
शायद उनको दीखता, मुझमें कुछ है ख़ास।।
तुमको छूकर मैं हुई, निश्चल निर्मल ओस।
पोर-पोर में प्रीति है, अब कैसा अ$फसोस।।
‘सोनागाछी’ हो गयी, अब शहरों में आम।
सारे रिश्ते बिक रहे, सस्ते-सस्ते दाम।।
बँगले में नौकर रहे, बालकनी में बाप।
प्रायोगिक संसार में, स्वार्थ हुआ संताप।।
सोने का पिंजरा मिला, हीरामन नाराज़।
आजादी खोकर किसे, अच्छा लगता ताज।।
कुंठित बुधिया हो गया, महानगर के बीच।
चादर छोटी पड़ रही, होती खींचमखींच।।
नदिया जाकर रेत से, पूछे अपना घाट।
जल-विहीन है बावरी, जैसे बाँझ-सपाट।।
महफि़ल में तेरी कमी, खली मुझे कल शाम।
म$$क्ते वाले शेर में, लेकर अपना नाम।।
प्रीति प्यार औ’ मित्रता, आज हुई बकवास।
आभासी दुनिया करे, मूल्यों का उपहास।।
तुम बिन रात उजाड़-सी, दिन सूखे पतझार।
सपने गिरवी हैं पड़े, नैन करे तकरार।।
मेरी छत को फांदकर, धूप गई उस पार।
कुटिया से है कीमती, बँगले की दीवार।।
हमने देखे मित्र भी, पहने हुए न$काब।
किसको अब अच्छा कहें, किसको कहें खराब।।
मेरी चुप्पी लग रही, है उनको हथियार।
जो शब्दों के तीर से, करते रहे प्रहार।।
खेतों पर बँगले बने, पनघट पर नलकूप।
बचपन वाले गाँव का, बदल गया है रूप।।
शहरों ने तो छीन ली, हर मुख से मुसकान।
भाई को भाई यहाँ, नहीं रहा पहचान।।
घर के बूढ़े वृक्ष को, काटा जब बिन बात।
नई पौध की क्यारियाँ, रोई सारी रात।।
प्रेमनगर में आजकल, होता है व्यापार।
किश्तों में होने लगा, दैहिक कारोबार।।
नंगे खड़े पहाड़ से, बोला बंजर खेत।
हम दोनों के भाग्य में, लिखी अंतत: रेत।।
आँसू बनकर बह गया, बादल का सब नीर।
धरा कहे किससे भला, अपने मन की पीर।।
मानव ने जी भर गढ़े, किले बुजऱ् औ’ द्वार।
यूँ अपने चारों तरफ, खुद चुन ली दीवार।।
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