वैशाली चतुर्वेदी के दोहे  - दोहा कोश

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे 

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे 

कागा मोती ले गया, खडा हंस लाचार।
क्या कहिए उस जीत को, जिसमें सच की हार।।

अपनी ही केवल खुशी, देख रहा इंसान।
औरों के दुख दर्द से, रहता है अनजान।।

कहीं तड़पती भूख को, है रोटी की आस।
कहीं छलकते दिख रहे, मदिरा भरे गिलास।।

पलकों को विश्राम तब, नींद मिले जब रात।
सुखद सुहानी नींद है, तन मन की सौगात।।

रिमझिम बूंदे यूँ लगें, जैसे मुक्ताहार।
बादल के इस नेह का, धरा कहे आभार।।

सहमी सी इस भूमि पर, मना रहे हो जश्न।
पूछ रहीं हैं बेटियाँ, आज सभी से प्रश्न।।

देवी कहकर पूजते, करते कन्या भोज।
जाँच कराकर भ्रूण की, मार रहे हैं रोज।।

कलियाँ आँगन में खिलें, महकाएं संसार।
जग में इनको भी मिले, जीने का अधिकार।।

देवी हमको मत कहो, मत दो ये सम्मान।
नारी भी इंसान है, इतना रख लो ध्यान।।

बेटी घर से दूर है, माँ रहती बेचैन।
रहे सुरक्षित वो सदा, करे दुआ दिन रैन।।

सावन भादों बीतते, बिन बादल बेहाल।    
खेतों में रौनक नहीं, सूखे नदिया ताल।।

अम्बर में बादल नहीं, नाचें कैसे मोर।  
शाखें भी तब झूमतीं, पवन करे जब शोर।।

तपती है वैशाख सी, भादों की ये धूप।
मौसम भी नाराज़ है, बदल रहा है रूप।।

आयें बादल दूर से, बरसे जल की धार।
समझें धरती की व्यथा, क्यों रूठे इस बार।।

रवि किरणों के ताप से, व्यथित हुआ संसार।
करते विनती मेघ से, बरसे अब जलधार।।

सूखी नदिया कह रही, करदो ये उपकार।
बरसो मेघा झूम के, तर जाये संसार।।

शहरों में अब भीड़ है, सूने हैं सब गाँव।
पनघट पर दिखते नहीं, पायल वाले पाँव।।

बूढ़ा बरगद कह रहा, बात यही है मूल।
छूना तुम आकाश को, जड़ें न जाना भूल।।

नाम उन्हें न मिल रहा, जो होते हैं आम।
रह जातीं प्रतिभा यहाँ, कितनी ही गुमनाम।।

जोड़ तोड़ की नीतियां, ऐसी इनकी बात।
सत्य यहाँ अब खा रहा, कितने ही आघात।।

जो केवल ये मानता, जीवन अर्थ प्रधान।
उसके ही मन में रहे, दौलत का अभिमान।।

अपने मद में डूब कर, करता नित्य बखान।
पढ़-लिख कर भी दूर है, उससे सच्चा ज्ञान।।

बैठे दूर विदेश में, उनके कजऱ्े माफ़।
पूँछे आज किसान है, ये कैसा इंसाफ।।

अगर गरीबी जानते, तो करते इंसाफ।
लेकिन आह गरीब की, नही करेगी माफ़।।

शोषण से भी बच सके, जान सके अधिकार।
लेकिन ये संभव तभी, शिक्षित हो परिवार।।

मिलजुल कर आगे बढे, करे स्वप्न साकार।
नवयुग की ये मांग है, शिक्षित हो परिवार।।

सोने की लंका कभी, रावण की थी शान।
जल कर बदली राख में, चूर हुआ अभिमान।।

जिसने अपने ज्ञान पर, किया यहां अभिमान।
वो ही भटका मार्ग से, व्यर्थ हुआ सब ज्ञान।।

तस्वीरों के रंग में, शामिल है मुस्कान।
लेकिन आँखें बोलती, मन में जो अभिमान।।

नहीं शब्द के जाल हों, भाव भरी हो प्रीत।
तन्मय होकर मन रचे, तब सजते हैं गीत।।
     

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