रवि खण्डेलवाल के दोहे
'सत्य' कुटी में आज भी, रहता गोबर लीप।
छल से बन बैठा कुटिल, 'झूठ', महल का दीप।।
संयम ने 'रवि' आजकल, त्यागे अपने वस्त्र।
धर्म, कर्म औ' शर्म मिल, घूम रहे निर्वस्त्र।।
करते भूखे पेट से, जो रोटी की बात।
रात गुजरते ही वही, पहुँचाते आघात।।
गीता और क़ुरान के, भूल गये 'रवि' मंत्र।
जनसेवक को याद हैं, सत्ता के षड़यंत्र।।
धर्माश्रम की टोह में, दुष्कर्मों के संत।
उल्लू सीधा कर रहे, कहलाकर भगवंत।।
झूठ, कपट, छल, छद्म के, विश्व गुरू हैं आप।
पुण्य कमाने में लगे, दुनिया भर के पाप।।
साये में भी पेड़ के, लगती तीखी धूप।
शाखों पर पत्ते नहीं, कैसा अजब स्वरूप।।
गतिविधियाँ हिंसक हुईं, विध्वंसक अब सोच।
नेह कहाँ कैसे रहे, मन में बची न लोच।।
चैनल सारे हो गये, मौला, मस्त, मलंग।
बिना युद्ध के लड़ रहे, अपनी-अपनी जंग॥
सोचा आधी रात को, सत्ता सुख लें लूट।
औंधे मुँह दोनों गिरे, कपट और 'रवि' झूठ।।
रिश्तों में एसीडिटी, बढ़ने लगी अपार।
अल्सर के सन्देह से, कौन करे इन्कार।।
खिचड़ी बन जब तक रहे, रिश्ते थे अनमोल।
जब से चावल-दाल हैं, रहा न कोई मोल।।
आश्वासन की मेड़ पर, बैठा पूरा देश।
जाने कब 'रवि' देश का, बदलेगा परिवेश।।
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