योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के दोहे  - दोहा कोश

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गुरुवार, 12 जनवरी 2023

योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के दोहे 

योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के दोहे 

कुदरत ने बख़्शी हमें, कायनात रंगीन।
सरहद-सरहद बाँट दी, हमने यहाँ ज़मीन।।

पेड़ काटकर जब हुई, कॉलोनी आबाद।
शुद्ध हवा की उस समय, आई बेहद याद।।

जब शहरों की गंदगी, गई नदी के पास।
फफक-फफक कर रो उठी, पावन जल की आस।।

निभा रहे हैं इस तरह, हम घर के दस्तूर।
तन से तो हैं पास में, लेकिन मन से दूर।।

आज खत्म से हो रहे, नैतिक मूल्य तमाम।
फैशन के इस दौर में, कपड़ों का क्या काम।।

खिंची-खिंची-सी जि़न्दगी, नुचे-नुचे अरमान।
बिन मंजि़ल की दौड़ में, दौड़ रहा इन्सान।।

वृद्ध पिता को डस रही, रात अँधेरी स्याह।
महँगाई में किस तरह, हो बेटी का ब्याह।।

नई कोंपलें कर रहीं, आँधी से संघर्ष।
चुभन शूल भी दे रहे, कैसे उपजे हर्ष।।

बदल रामलीला गई, बदल गए अहसास।
राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।।

अपनेपन की खोज में, छाना जब इतिहास।
मिले मुखौटे शून्य के, लिए हुए सन्त्रास।।

महँगाई के दौर में, जीना हुआ मुहाल।
आसमान पर चढ़ गए, आटा-सब्जी-दाल।।

छँटा कुहासा मौन का, निखरा मन का रूप।
रिश्तों में जब खिल उठी, अपनेपन की धूप।।

तेरे मेरे बीच जब, खत्म हुआ आवेश।
रिश्तों के अखबार में, छपे सुखद संदेश।।

कहीं रही ना आपसी, शेष हार या जीत।
लिखे समय के पृष्ठ पर, रिश्तों ने जब गीत।।

नई बहू ससुराल जब, पहुँची पहली बार।
स्वागत में सब बन गए, रिश्ते तोरणद्वार।।

नही ज़रूरी खून के, रिश्ते ही हों खास।
व्यवहारिक रिश्ते सदा, देते रहें उजास।।

मैंने पूछा कौन-सा, रिश्ता अधिक पवित्र।
मुझको दिखलाने लगा, वह मरघट के चित्र।।

पता नहीं अभिशाप है, या फिर यह वरदान।
मोबाइल ने छीन ली, चिट्ठी की पहचान।।

बापू तेरे देश में, यह कैसा उन्माद।
अब भाषा के नाम पर, होने लगे विवाद।।

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