पार्थ तिवारी के दोहे
आँचल में कुहरा भरे, नयनों धरे अलाव।
शाम शीत की दे रही, बन्धन का प्रस्ताव।।
चूल्हे की साँसें थमी, हुई रसोई मौन।
इस महँगाई में भला, पेट भरेगा कौन।।
रोते-रोते पुण्य ने, धरे पाप के पाँव।
कहाँ बसूँ, किस ठौर मैं, तू ही तू हर गाँव।।
बुझता यौवन देखकर, और धूप के घाव।
सँध्या ने ख़ारिज किया, सूरज का प्रस्ताव।।
अपने घर की काँच-सी, दूजों की कचनार।
बिटिया से दो रंग का, कैसा है व्यवहार।।
तारे सब करते रहे, सुनी नहीं फरियाद।
भोर हुई बढ़ने लगा, सूरज का उन्माद।।
दो पहरों के बीच का, थका हुआ ठहराव।
शीतलता के छाँव ने, भरा धूप का घाव।।
भले निगोड़ी रात यह, लाख करे संघर्ष।
रोक नहीं सकती कभी, सूरज का उत्कर्ष।।
शब्द-शब्द करते रहे, कलमों से संघर्ष।
'मैं' को 'हम' कैसे लिखूँ, मिला नहीं निष्कर्ष।।
भ्रमवश इठलाती रहे, भले सदा ही शाम।
भोर उतारे आरती, दिनकर की अविराम।।
आँगन गुमसुम-सा खड़ा, तुलसी भी है मौन।
बहुएँ सब परदेश में, दीपक बालें कौन।।
आप आदमी त्रस्त है, है किसान बदहाल।
श्वेत भेड़िये कर रहे, संसद ख़ूँ से लाल।।
वर्षों जो इज़्ज़त ढकी, आज हुई बेकार।
आँगन से कहने लगा, घर का मुख्य किवार।।
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