पंकज परिमल के दोहे - दोहा कोश

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

पंकज परिमल के दोहे

पंकज परिमल के दोहे 

दिल्ली की बिल्ली कहे, ओ देहाती श्वान।
मुझसे हर विधि हीन तू, ले इस सच को मान।।

कभी दुलारें दिल्लियाँ, या दें बाँह मरोड़।
हम तो कब के आ चुके, अपनी काशी छोड़।।

वीणा मुरलि मृदंग तो, बजे सलय-सुर-ताल।  
पर उन पर हावी रहे, घंटे औ’ घडिय़ाल।।

भेदभाव यूँ व्याप्त है, यत्र-तत्र-सर्वत्र।
तुमको माखन-मीसरी, हमको तुलसीपत्र।।

भरी-भरी हैं चुप्पियाँ, खाली हैं संवाद।
व्यक्त हुई शुभकामना, मौन रही फरियाद।।

पतझर के दिन भूलकर, फिर फूला कचनार।
मौसम ने चिट्ठी लिखी, खुशियों की हर बार।।

बाँध बुके के रिबन में, कुछ गुलाब कुछ घास।
आजा ओ शुभकामना, अब तो मेरे पास।।

मिट्टी पर यदि बैठती, होती युँ ही खऱाब।
बैठ गोद में घास की, मिली ओस को आब।।

देखूँगा, करना इसे, कैसे निज अनुकूल।
व्याख्या करने दे मुझे, तू रख अपना मूल।।

करना तो अनिवार्य था, माल डाल सत्कार।
बाराती थे द्वार पर, ज़ाहिल, बदबूदार।।

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