सुनीता काम्बोज के दोहे
मनभावन अद्भुत बड़ा, सुंदर दोहा छंद।गूढ़ ज्ञान से है भरा, मन को दे आनंद।।
मन की माटी में उगे, जाने कितने गीत।
कुछ में पीड़ा की चुभन, कुछ में तेरी प्रीत।।
कविता सूनी हो गई, बिन छंदों बिन भाव।
आज चुटकुले खे रहे, ये साहित्यिक नाव।।
हम गैरों के वार को, हसँकर लेते झेल।
चोट हमेशा दे गया, ये अपनों का खेल।।
क्यों बढ़ती ही जा रही, आँगन की दीवार।
फर्ज सभी भूले हुए, सिर्फ याद अधिकार।।
कभी पास से देखना, जीवन बड़ा हसीन।
समय नहीं अब पास है, मानव बना मशीन।।
समय नहीं अब पास है, मानव बना मशीन।।
वृक्ष लगाए थे कभी, मैंने जो फलदार।
कारण खोजूँ क्यों हुए, आज बाँझ लाचार।।
उससे ही करने लगी, दुनिया लाख सवाल।।
आज मुसा$िफर घूमते, अपना मकसद भूल।
काँटों को सहला रहे, लगे तोडऩे फूल।।
दो मुँह वाले घूमते, किस पर करूँ यकीन।
कुल की इज्जत तार कर, खुद को कहें कुलीन।।
उसकी महिमा गा रहा, टी वी और अखबार।
कौवे ही करने लगे, कौवे का सत्कार।।
कुर्सी का अच्छा नहीं, लगता मुझे नसीब।
रहते छल ये लालसा, निंदा सदा करीब।।
चँवर डुलाते हंस हैं, कागा पहने ताज।
उल्टी नदिया बह रही, देखी मैंने आज।।
राजनीति को है लगा, जाने कैसा शाप।
बेटा मारे बाप को, अरु बेटे को बाप।।
मन की चौकी पर रहा, ये अभिमान विराज।
हर कोई समझे यहाँ, खुद को तीरंदाज।
घुन जल्दी लगने लगा, नम था जरा अनाज।
दुख देता है रे मना, वक्त से पहले काज।।
तेरी करुणा देख कर, मन है भाव विभोर।
झूम- झूम कर नाचता, अब ये मन का मोर।।
तम ही तम फैला हुआ, चलती हूँ जिस ओर।
पर मन में विश्वास है, मिल जाएगी भोर।।
आँखें होती आइना, सब देती हैं बोल।
मन के सारे भेद को, ये देती हैं खोल।।
भाई-भाई कर रहे, आपस में तकरार।
याद किसी को भी नही, राम भरत का प्यार।।
ज्ञान उसे था कम नहीं, था बेहद बलवान।
पर रावण को खा गया, उसका ही अभिमान।।
नदी किनारे तोड़ती, आता है तू$फान।
नारी नदिया एक सी, मर्यादा पहचान।।
सबको जग में चाहिए, मान और सम्मान।
इक दूजे को देखते, कौन करे विषपान।।
कहने वाले कह गए, बात बड़ी ही खूब।
गर है तुमको तैरना, पहले जाओ डूब।।
पैसे ने कानून को, बना दिया है खेल।
मुजरिम होते हैं बरी, निर्दोषों को जेल।।
वैसे बड़ा अमीर था, पर दिल का कंगाल।
सूखी रोटी से सजा, ज्यों सोने का थाल।।
दुश्मन से तुम भूलकर, भी मत रखना मेल।
घुल पाया है कब भला, ये पानी में तेल।।
सबके वश में है नहीं, पढ़ पाना ये पाठ।
तप से चन्दन हो गई, ये जंगल की काठ।।
लता लिपटकर पेड़ से, करती बड़ा गुरूर।
चली हवा तो गिर पडी, गर्व हुआ सब चूर।।
नील गगन में उड़ रहे, सब पंछी स्वछंद।
तड़प-तड़प दम तोड़ते, जो पिंजरे में बंद।।
फूलों में खुशबू भरी, फल में भरी मिठास।
खुशबू से जग भर दिया, है जादू कुछ खास।।
बिखरे-बिखरे ख्वाब हैं, उलझे-उलझे केश।
मैं विरहन रोती रही, पिया गए परदेश।।
जिसको लगती जानता, बस वो मन की पीर।
दर्द जुदाई के चुभे, बैरी कैसे तीर।।
धनवानों के पास थे, इतने बड़े व$कील।
झूठी साबित हो गई, मेरी सभी दलील।।
लोभी लगता है कभी, लगता मुझे फकीर।
रोज बदलती देखती, मैं मन की तश्वीर।।
निर्धन का, धनवान का, यहाँ बराबर मान।
जात-पात कब जानता, जलता हुआ मशान।।
चम्पा रोये केतकी, रोया बड़ा गुलाब।
आँधी ने बिखरा दिए, आकर सारे ख्वाब।।
दुनिया मे सब दीखते, इसके आगे दीन।
वक्त खिलौना हाथ से, जब ले जाए छीन।।
दुख देती, आलोचना, सुख देती है वाह।
सुख के मायाजाल में, भटक रही है राह।।
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