राजेन्द्र वर्मा के दोहे
जनगण पर चलते रहे, संकल्पों के तीर ।
‘जनगण-मन’ गाता रहा, लालकि़ला-प्राचीर ।।
जल-संकट है देश का, जलता हुआ सवाल ।
मिनरल वाटर बेचकर, बनिया मालामाल ।।
कृषिप्रधान है देश पर, भूखा मरे किसान ।
गाने वाले गा रहे, भारतवर्ष महान ।।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चढ़ी, बदहाली के नाम ।
खेती दे पायी नहीं, लागत का भी दाम ।।
गंगा मैली हो गयी, धोते-धोते मैल।
रेती पर प्यासा खड़ा, शंकरजी का बैल।।
हवा चली बदलाव की, बदला हिन्दुस्तान ।
अपने ही घर में हुआ, मेज़बान मेहमान ।।
टी.वी. की कि़स्मत खुली, व्यापारी के संग ।
बिकते हैं बाज़ार में, इन्द्रधनुष के रंग ।।
महँगाई इठला रही, बढ़ी पूर्ति से माँग ।
घोट रही सत्ता मगर, पूँजी के घर भाँग ।।
बड़ी अदालत ने लिखा, अपना बड़ा कृतित्व ।
लेकिन कब तय हो सका, राजा का दायित्व ?
चूल्हा ठण्डा है पड़ा, बच्चे भी बीमार ।
एम.ए. कर बैठे हुए, पति मेरे बेकार ।।
बच्चे भूखे सो गये, पानी पी फिर आज ।
बासी भी देता नहीं, यह निर्दयी समाज ।।
दिन-भर कूड़ा बीनकर, जो है थककर चूर ।
क्या वह बच्चा देश की, है आँखों का नूर?
दुनिया-भर से हम करें, इंटरनेट से बात ।
रहता कौन पड़ोस में, नहीं हमें है ज्ञात !
बँटवारा हो ही गया, चला नहीं जब ज़ोर ।
अम्मा मेरी ओर हैं, बापू उनकी ओर ।।
बूढ़े बरगद की तरह, रहे बाँटते छाँव ।
अब एकाकी ढह रहे, विवश देखता गाँव ।।
महानगर भेजे तभी, अपने गाँव प्रणाम ।
पत्र लिखे जब ज़िन्दगी, जन्म-मृत्यु के नाम ।।
कच्चे मन को क्या पता, किसके मन क्या खोट!
स्वजनों से मिलती रही, भिंचे होंठ पर चोट ।।
परिचित हाथों में पड़ी, दबी रह गयी चीख ।
अम्मा! तेरी लाडली, अब न पड़ेगी दीख ।।
पत्थर के सब देवता, पत्थर ही के लोग ।
दुखिया को रोटी नहीं, ठाकुर जी को भोग ।।
गाँधी की टोपी चखे, सिंहासन का स्वाद ।
घीसू-माधो से हुई, मधुशाला आबाद ।।
साधनहीनों पर लगी, मौसम की भी घात ।
गले लिपटकर श्वान के, हल्कू काटे रात ।।
सवा सेर गेहूँ लिया, किया अतिथि सत्कार ।
जीवन-भर चुकता किया, फिर भी चढ़ा उधार ।।
जब से भगवे रंग ने, चले चुनावी दाँव ।
अलगू-जुम्मन में ठनी, देखे सारा गाँव ।।
जब से ट्रैक्टर आ गया, झूरी के भी द्वार ।
हीरा-मोती की कथा, लगती है बेकार ।।
बेटों ने दावत रखी, रखा सभी का ध्यान ।
बूढ़ी काकी ढूँढती, जूठन में पकवान ।।
मेला उजड़ा ईद का, होने को है शाम ।
हामिद चिमटे का मगर, चुका न पाये दाम ।।
धनिया गोबर को जने, रानी राजकुमार ।
संविधान गाता फिरे, समता का अधिकार ।।
फसलें भी करने लगीं, होरी से तक़रार ।
घर वे जा सकती नहीं, जब तक चढ़ा उधार ।।
असमय बूढ़े हो गये, होरी जैसे लोग ।
दिल्ली सोचे, किस तरह; हो इनका उपयोग !
धनिया बेबस देखती, होरी तजता प्राण ।
पथ्य और औषधि नहीं, होता है गोदान ।।
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