राजेन्द्र वर्मा के दोहे - दोहा कोश

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शनिवार, 14 जनवरी 2023

राजेन्द्र वर्मा के दोहे

राजेन्द्र वर्मा के दोहे

जनगण पर चलते रहे, संकल्पों के तीर ।
‘जनगण-मन’ गाता रहा, लालकि़ला-प्राचीर ।।

जल-संकट है देश का, जलता हुआ सवाल ।
मिनरल वाटर बेचकर, बनिया मालामाल ।।

कृषिप्रधान है देश पर, भूखा मरे किसान ।
गाने वाले गा रहे, भारतवर्ष महान ।।

पीढ़ी-दर-पीढ़ी चढ़ी, बदहाली के नाम ।
खेती दे पायी नहीं, लागत का भी दाम ।।

गंगा मैली हो गयी, धोते-धोते मैल।
रेती पर प्यासा खड़ा, शंकरजी का बैल।।

हवा चली बदलाव की, बदला हिन्दुस्तान ।
अपने ही घर में हुआ, मेज़बान मेहमान ।। 

टी.वी. की कि़स्मत खुली, व्यापारी के संग ।
बिकते हैं बाज़ार में, इन्द्रधनुष के रंग ।।

महँगाई इठला रही, बढ़ी पूर्ति से माँग ।
घोट रही सत्ता मगर, पूँजी के घर भाँग ।।

बड़ी अदालत ने लिखा, अपना बड़ा कृतित्व ।
लेकिन कब तय हो सका, राजा का दायित्व ?

चूल्हा ठण्डा है पड़ा, बच्चे भी बीमार ।
एम.ए. कर बैठे हुए, पति मेरे बेकार ।।

बच्चे भूखे सो गये, पानी पी फिर आज ।
बासी भी देता नहीं, यह निर्दयी समाज ।।

दिन-भर कूड़ा बीनकर, जो है थककर चूर ।
क्या वह बच्चा देश की, है आँखों का नूर?

दुनिया-भर से हम करें, इंटरनेट से बात ।
रहता कौन पड़ोस में, नहीं हमें है ज्ञात !

बँटवारा हो ही गया, चला नहीं जब ज़ोर ।
अम्मा मेरी ओर हैं, बापू उनकी ओर ।।

बूढ़े बरगद की तरह, रहे बाँटते छाँव ।
अब एकाकी ढह रहे, विवश देखता गाँव ।।

महानगर भेजे तभी, अपने गाँव प्रणाम ।
पत्र लिखे जब ज़िन्दगी, जन्म-मृत्यु के नाम ।।

कच्चे मन को क्या पता, किसके मन क्या खोट!
स्वजनों से मिलती रही, भिंचे होंठ पर चोट ।।

परिचित हाथों में पड़ी, दबी रह गयी चीख ।
अम्मा! तेरी लाडली, अब न पड़ेगी दीख ।।

पत्थर के सब देवता, पत्थर ही के लोग । 
दुखिया को रोटी नहीं, ठाकुर जी को भोग ।। 

गाँधी की टोपी चखे, सिंहासन का स्वाद । 
घीसू-माधो से हुई, मधुशाला आबाद ।। 

साधनहीनों पर लगी, मौसम की भी घात । 
गले लिपटकर श्वान के, हल्कू काटे रात ।। 

सवा सेर गेहूँ लिया, किया अतिथि सत्कार । 
जीवन-भर चुकता किया, फिर भी चढ़ा उधार ।। 

जब से भगवे रंग ने, चले चुनावी दाँव । 
अलगू-जुम्मन में ठनी, देखे सारा गाँव ।। 

जब से ट्रैक्टर आ गया, झूरी के भी द्वार । 
हीरा-मोती की कथा, लगती है बेकार ।। 

बेटों ने दावत रखी, रखा सभी का ध्यान । 
बूढ़ी काकी ढूँढती, जूठन में पकवान ।। 

मेला उजड़ा ईद का, होने को है शाम । 
हामिद चिमटे का मगर, चुका न पाये दाम ।। 

धनिया गोबर को जने, रानी राजकुमार । 
संविधान गाता फिरे, समता का अधिकार ।। 

फसलें भी करने लगीं, होरी से तक़रार । 
घर वे जा सकती नहीं, जब तक चढ़ा उधार ।। 

असमय बूढ़े हो गये, होरी जैसे लोग । 
दिल्ली सोचे, किस तरह; हो इनका उपयोग ! 

धनिया बेबस देखती, होरी तजता प्राण । 
पथ्य और औषधि नहीं, होता है गोदान ।। 
                         ००

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