अजय जनमेजय के दोहे
सत्य और भी हैं मगर, परम सत्य है भूख|
जिसके आगे ज्ञान की, नदिया जाती सूख||
खूब पता है साथ है, यादों वाला काँच।
फिर भी मृग मन का भरे, चलते हुए कुलाँच।।
क्या-क्या बोलूँ रौनकें, क्या-क्या बोलूँ रंग।
बरसे छत पर चाँदनी, होते हो जब संग।।
रेखाएं ये भाग्य की, लायीं कैसी साथ।
नन्हीं जान हथेलियाँ, छान रहीं फुटपाथ ।।
बिना तुम्हारे नींद कब, बिना नींद कब चैन।
इक सपना भीगा किया, फँसकर गीले नैन।।
हमीं सुनाने लग गए, बदल-बदल कर तथ्य।
जुटा न पाए हौसला, कह सकते थे सत्य।।
तुम बिन जब तनहा रहा, तब-तब मेरे द्वार।
आंधी आयी पीर की, लेकर गर्द-गुबार।।
चहरे पर बढऩे लगीं, चिन्ताओं की रेख।
खुद में बनकर आइना, क्या पाया है देख।।
चुप्पी का पुल बीच में, हम दोनों दो छोर।
ऊपर से खामोश थे, अन्दर-अन्दर शोर।।
तुमने फिर लिख भेज दी, ना आने की बात।
उम्मीदें फिर-फिर हुईं, तीन ढ़ाक के पात।।
वो जो मेरी जान था, थी उससे ही जंग।
असमंजस में चाँद था, छत पर मेरे संग।।
तन देकर उसने हमें, देदी पूँजी साँस।
द्वेष, मोह की कील खुद, हमने रक्खी फाँस।।
करनी कथनी से हुए, हम खुद ही नापाक।
उसने तो जीवन दिया, पाक और शफ्फाक।।
ओरों को तकलीफ दे, रहा कौन आबाद।
पहले सूरज खुद तपा, तपी धरा फिर बाद।।
जब-जब देखूँ आइना, दिखे न अपना रूप।
ये मैं कैसी डाह में, जलकर हुआ कुरूप।।
सहलाया दुख को सुनी, दुख की जब हर बात।
पता चला सुख ने उसे, दिए बहुत आघात।।
आओगे तुम तय हुआ, कर के देर सबेर।
सौन चिरैया फिर दिखी, मन की आज मुंडेर।।
साँस-साँस सोचा यही, आओगे इस बार।
खामोशी बुनती रही, जाले मन के द्वार।।
शब्द हमारी सोच को, देते सच्चे अर्थ।
बंटकर साँचों में किया, हमने अर्थ अनर्थ।।
शब्द सारथी तो सदा, रहे हमारी गैल।
पर सोचों का दायरा, ज्यों कोल्हू का बैल।।
मेरे खुद के हाथ में, थी मैं की बंदूक।
तड़पा जब आई समझ, क्या थी मन की हूक।।
फिर भी मृग मन का भरे, चलते हुए कुलाँच।।
क्या-क्या बोलूँ रौनकें, क्या-क्या बोलूँ रंग।
बरसे छत पर चाँदनी, होते हो जब संग।।
रेखाएं ये भाग्य की, लायीं कैसी साथ।
नन्हीं जान हथेलियाँ, छान रहीं फुटपाथ ।।
बिना तुम्हारे नींद कब, बिना नींद कब चैन।
इक सपना भीगा किया, फँसकर गीले नैन।।
हमीं सुनाने लग गए, बदल-बदल कर तथ्य।
जुटा न पाए हौसला, कह सकते थे सत्य।।
तुम बिन जब तनहा रहा, तब-तब मेरे द्वार।
आंधी आयी पीर की, लेकर गर्द-गुबार।।
चहरे पर बढऩे लगीं, चिन्ताओं की रेख।
खुद में बनकर आइना, क्या पाया है देख।।
चुप्पी का पुल बीच में, हम दोनों दो छोर।
ऊपर से खामोश थे, अन्दर-अन्दर शोर।।
तुमने फिर लिख भेज दी, ना आने की बात।
उम्मीदें फिर-फिर हुईं, तीन ढ़ाक के पात।।
वो जो मेरी जान था, थी उससे ही जंग।
असमंजस में चाँद था, छत पर मेरे संग।।
तन देकर उसने हमें, देदी पूँजी साँस।
द्वेष, मोह की कील खुद, हमने रक्खी फाँस।।
करनी कथनी से हुए, हम खुद ही नापाक।
उसने तो जीवन दिया, पाक और शफ्फाक।।
ओरों को तकलीफ दे, रहा कौन आबाद।
पहले सूरज खुद तपा, तपी धरा फिर बाद।।
जब-जब देखूँ आइना, दिखे न अपना रूप।
ये मैं कैसी डाह में, जलकर हुआ कुरूप।।
सहलाया दुख को सुनी, दुख की जब हर बात।
पता चला सुख ने उसे, दिए बहुत आघात।।
आओगे तुम तय हुआ, कर के देर सबेर।
सौन चिरैया फिर दिखी, मन की आज मुंडेर।।
साँस-साँस सोचा यही, आओगे इस बार।
खामोशी बुनती रही, जाले मन के द्वार।।
शब्द हमारी सोच को, देते सच्चे अर्थ।
बंटकर साँचों में किया, हमने अर्थ अनर्थ।।
शब्द सारथी तो सदा, रहे हमारी गैल।
पर सोचों का दायरा, ज्यों कोल्हू का बैल।।
मेरे खुद के हाथ में, थी मैं की बंदूक।
तड़पा जब आई समझ, क्या थी मन की हूक।।
साधक था जब मौन में, शब्द हो गए साध्य।
शब्द हुए जब साध्य तो, सुलभ हुए आराध्य।।
शब्द और साधक हुए, जब दोनों ही मौन।
अजब अनूठी साधना, विघ्न डालता कौन।।
शब्द बोलते मौन में, मौन न पर आसान।
मौन शक्ति से राह के, मिट जाते व्यवधान।।
शब्दों की हर बतकही, देती है जब अर्थ।
मौन रखो तो ज्ञात हो, क्या-क्या किया अनर्थ।।
शब्द हमेशा शोर में, खोते हैं पहचान।
वही शब्द पर मौन में, हो जाते आसान।।
जहाँ शब्द खुद मौन लें, तब लो इतना जान।
छोड़ मुलम्मा शोर का, रचते नव प्रतिमान।।
मौन रखो तो शब्द भी, करते हैं कब शोर।
उतरें मन की झील में, थामे मन की डोर।।
मौन रखा तो मौन का, जाना मैंने तंत्र।
ध्वनित सभी होने लगे, जितने भी थे मंत्र।।
नयन प्रखर हो बोलते, साधक हो जब मौन।
निश्छल बैठा भूल सब, मन था जो मृगछौन।।
मौन रखा तो नाचने, लगे शब्द अविराम।
अर्थ रूबरू हो गए, खुले नए आयाम।।
शब्द सभी थे शोर में, अर्थों के मोहताज।
मौन हुआ तो पा सका, मैं उनकी आवाज़।।
तथ्य यही है मौन का, तय है सब प्रारूप।
मौन रखो तो शब्द के, अनुपम बने स्वरूप।।
मौन रहा तो पा सका, शब्दों का ये रूप।
उतरे मन बन कर किरण, ज्यों जाड़े की धूप।।
शब्द खनकते घूमते, पायलिया की भाँति।
मन में ऐसे बंद हैं, ज्यों सीपी में स्वांति।।
मौन शब्द को साधता, देता नव आयाम।
शब्द सधा मन कह उठा, मैं बन्दा मैं राम।।
साधी जब-जब मौनता, मन नांचे ज्यों मोर।
बिम्ब बनी ध्वनियाँ मिलीं, मैं देखूं जित-ओर।।
शब्द मुखौटे साथ थे, कब जाना मैं कौन।
रूप रूबरू हो गए, जब-जब साधा मौन।।
जिसने साधा मौन को, फिर तैरह क्या तीन।
देखो सीखो पेड़ से , खड़ा मौन तल्लीन।।
अगर बचाने झूंठ को, लिया मौन का साथ।
सच जानो अपराध में, लिप्त तुम्हारे हाथ।।
मौन साधना योग है, मौन हुए आनंद।
पल-पल होता दो गुना, खुशियों का मकरंद।।
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