डॉ. कुँवर बेचैन के दोहे
चलता चाक कुम्हार का, जग चक्के का घेर|
भीगा धागा काटता, जनम-जनम का फेर||
अनगिन खलनायक मिले, नायक मिला न एक|
फटे कागजों पर खडी, कथा कुहनियाँ टेक||
काली कंघी रात की, कितनी दांतेदार|
चलने पर आरी बने, रुकने पर तलवार||
रस ले रंग ले रूप ले, होते रहे निहाल|
जैसे ही पूरे पके, छोड़ चले फल, डाल||
जब से कद इनके बढे, नीची हुई मुंडेर|
ताक-झाँक करने लगे, बेरी और कनेर||
दो पाये करने लगे, चौ-पाये-सी बात|
कुर्सी तुझ पर बैठकर, हुआ यही उत्पात||
माँ मंदिर की आरती, पिता सुरीले शंख।
बहना मीठी बाँसुरी, बंधु मोर के पंख।।
छुपा न पाई बाँसुरी, प्रीति-गीत की बात।
सात स्वरों में कह गई, एक-एक की सात।।
अधरों को वंशी मिली, नैनों को रस-रास।
पूरे तन को दे गया, नए रंग मधुमास।।
सिसक-सिसक गेहूँ कहे, फफक-फफककर धान।
खेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान।।
रस ले, रंग ले, रूप ले, होते रहे निहाल।
जैसे ही पूरे पके, छोड़ चले फल डाल।।
चिट्ठी जैसा ही ‘कुँवर’, है रिश्तों का साथ।
शाम हुई तो डाकिया, लौटा खाली हाथ।।
टकराकर भी चूडियाँ, खनक उठीें हर बार।
रिश्तों से कीजे ‘कुँवर’, कंगन सा व्यवहार।।
दुख में सब संग छोड़ते, है जग का दस्तूर।
ग्रीष्म-काल आया, चली, नदिया तट से दूर।।
काठ हुए तरुवर हरे, पोर-पोर में दाह।
दे बादल को दोष दे, माली बेपरवाह।।
पानी-पानी हो गया, श्यामल मेघ-कुमार।
झूले पर जब गा उठी, गोरी राग मल्हार।।
जब से इनके कद बढ़े, नीची हुई मुँडेर।
ताक-झाँक करने लगे, बेरी और कनेर।।
उधर देह में चाँदनी, लेती रही हिलोर।
इधर नहाए नैन के, चंचल चपल चकोर।।
पीले पत्ते झर गए, अब आएँगे और।
महकेगा फिर से ‘कुँवर’, आम्र-डाल पर बौर।।
दो पाये करने लगे, चौपाये-सी बात।
कुर्सी तुझ पर बैठकर, हुआ यही उत्पात।।
दो पँखुडियों ने ‘कुँवर’, खींची एक लकीर।
पहले तो राँझा लिखा, और बाद में हीर।।
काली कंघी रात की, कितनी दाँतेदार।
चलने पर आरी बने, रुकने पर तलवार।।
अनगिन खलनायक मिले, नायक मिला न एक।
फटे का$गज़ों पर खड़ी, कथा कुहनियाँ टेक।।
एक करे मेहनत ‘कुँवर’, एक करे आराम।
स्वेटर बुनती दोपहर, पहन रही है शाम।।
चलता चाक कुम्हार का, जग-चक्के का घेर।
भीगा धागा काटता, जनम-जमन के फेर।।
आगे तो गंगाजली, पीछे छुपी शराब।
हुआ आज का आदमी, छल से भरी किताब।।
हल्दीमल दूल्हा बने, पहने पीत दुकूल।
फूले-फूले फिर रहे, अमलतास के फूल।।
रूप महोत्सव आप हैं, हम बंजारे नैन।
बस यों ही बैठे रहो, बीत जाएगी रैन।।
माँ मंदिर की आरती, पिता सुरीले शंख।
बहना मीठी बाँसुरी, बंधु मोर के पंख।।
छुपा न पाई बाँसुरी, प्रीति-गीत की बात।
सात स्वरों में कह गई, एक-एक की सात।।
अधरों को वंशी मिली, नैनों को रस-रास।
पूरे तन को दे गया, नए रंग मधुमास।।
सिसक-सिसक गेहूँ कहे, फफक-फफककर धान।
खेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान।।
रस ले, रंग ले, रूप ले, होते रहे निहाल।
जैसे ही पूरे पके, छोड़ चले फल डाल।।
चिट्ठी जैसा ही ‘कुँवर’, है रिश्तों का साथ।
शाम हुई तो डाकिया, लौटा खाली हाथ।।
टकराकर भी चूडियाँ, खनक उठीें हर बार।
रिश्तों से कीजे ‘कुँवर’, कंगन सा व्यवहार।।
दुख में सब संग छोड़ते, है जग का दस्तूर।
ग्रीष्म-काल आया, चली, नदिया तट से दूर।।
काठ हुए तरुवर हरे, पोर-पोर में दाह।
दे बादल को दोष दे, माली बेपरवाह।।
पानी-पानी हो गया, श्यामल मेघ-कुमार।
झूले पर जब गा उठी, गोरी राग मल्हार।।
जब से इनके कद बढ़े, नीची हुई मुँडेर।
ताक-झाँक करने लगे, बेरी और कनेर।।
उधर देह में चाँदनी, लेती रही हिलोर।
इधर नहाए नैन के, चंचल चपल चकोर।।
पीले पत्ते झर गए, अब आएँगे और।
महकेगा फिर से ‘कुँवर’, आम्र-डाल पर बौर।।
दो पाये करने लगे, चौपाये-सी बात।
कुर्सी तुझ पर बैठकर, हुआ यही उत्पात।।
दो पँखुडियों ने ‘कुँवर’, खींची एक लकीर।
पहले तो राँझा लिखा, और बाद में हीर।।
काली कंघी रात की, कितनी दाँतेदार।
चलने पर आरी बने, रुकने पर तलवार।।
अनगिन खलनायक मिले, नायक मिला न एक।
फटे का$गज़ों पर खड़ी, कथा कुहनियाँ टेक।।
एक करे मेहनत ‘कुँवर’, एक करे आराम।
स्वेटर बुनती दोपहर, पहन रही है शाम।।
चलता चाक कुम्हार का, जग-चक्के का घेर।
भीगा धागा काटता, जनम-जमन के फेर।।
आगे तो गंगाजली, पीछे छुपी शराब।
हुआ आज का आदमी, छल से भरी किताब।।
हल्दीमल दूल्हा बने, पहने पीत दुकूल।
फूले-फूले फिर रहे, अमलतास के फूल।।
रूप महोत्सव आप हैं, हम बंजारे नैन।
बस यों ही बैठे रहो, बीत जाएगी रैन।।
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