पुरुषोत्तम दास ‘निर्मल’ के दोहे - दोहा कोश

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गुरुवार, 12 जनवरी 2023

पुरुषोत्तम दास ‘निर्मल’ के दोहे

पुरुषोत्तम दास ‘निर्मल’ के दोहे 

राजनीति के खेल की, एक अनोखी बात।

सत राखे पत जात है, पत राखे सत जात।।

तुष्टिकरण इस देश की, बहुत पुरानी रीत।
अपना हर हित त्याग कर, गैरों का मन जीत।।

करनी में कुछ और है, कथनी में कुछ और।
सबके मन को मोहते, कोकिल, नेता, चोर।।

वणिक, विधायक, वारुणी, वेश्या और वकील।
सबका मन राजी करें, सबको करें जलील।।

विद्या, वैद्य, विधायिका, कवि, सेना, संचार।
ये सब सेवा धर्म हैंं, मत समझो व्यापार।।

फैलाते अश्लीलता, मंच और संचार।
इसीलिए होता यहाँ, सडक़ों पर व्यभिचार।।

सरवर जैसा स्वार्थी, कभी न हो इन्सान।
जी भर जल संचित करे, बूँद करे ना दान।।

इस युग में संभव नहीं, हो विशाल परिवार।
इतना तो कर लीजिए, रहे सभी में प्यार।।

रहा सहा सब कर दिया, फैशन ने बर्बाद।
लडक़े लडक़ी में रहा, तनिक न अन्तर आज।।

पशुता भी भयभीत है, नर की पशुता देख।
पशुता में इन्सान ने, जड़ी रेख पर मेख।।

चोरी, डाका, तस्करी, लूट-पाट पर ध्यान।
भारत में अब आम है, नर रूपी शैतान।।

नारी के सिर पर चढ़ा, नंगेपन का भूत।
नग्र चित्र अखबार के, इसके प्रबल सबूत।।

नागफनी बंगले चढ़ी, तुलसी खरपतवार।
हमको शुभ लगते नहीं, नवयुग के आसार।।

केवल तन की भूख अब, केवल धन की चाह।
गलत राह पर आदमी, आज हुआ गुमराह।।

कारा में नानक करे, अपने प्रभु का जाप।
भार चले सिर से अलग, चक्की अपने आप।।

योगी भोगी हो गया, मूढ़ बना विद्वान।
कैसा था, क्या हो गया, पत राखें भगवान।।

कभी न छूटे हाथ से, यौवन और बसंत।
सभी चाहते हैं सदा, हो न सुखों का अंत।।

जब से आँखों में बसा, नवयुग का विज्ञान।
बदला बिल्कुल आदमी, भूला निज पहचान।।

धन की धुन में आदमी, भूल गया शुभ काम।
उसको प्रिय लगने लगा, निज उत्कर्ष ललाम।।

धरती का जल खींचकर, सुख चाहे इन्सान।
मानव के हर जुल्म को, देख रहा भगवान।।

कुदरत के दुश्मन बने, मानव और मशीन।
शिखर चढ़ गया आदमी, धरती का सुख छीन।।

अनपढ़ से भी नीच हैं, विकसित जन के काम।
नवयुग कस विघटन सकल, आज मनुज के नाम।।

जिसको जो रुचिकर लगे, वही करे दिन-रात।
मानव को फुर्सत कहाँ, सुने नियम की बात।।

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