आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ के दोहे
प्रेम पत्र पीपल लिखे, नीम पढ़े रह मौन।मन में लड्डू फूटते, देख हँसे जासौन।।
बरगद बब्बा खाँसते, रात-रात भर जाग।
हाल सवेरे पूछते, आ गौरैया-काग।।
सँग-सँग खेले-पढ़े, साल, बेर, सागौन।
बीज फूट के बो गया, कब क्या जाने कौन??
शीश उठा शीशम कहे, तोड़ मोह के पाश।
धरती में जड़ जमा कर, छू लूँगा आकाश।।
सदा सुहागन पर हुआ, है बलिहार गुलाब।
मन ही मन गेंदा जले, खो चहरे की आग।।
सूर्यमुखी से ले रहा, व्यर्थ डहलिया होड़।
माली आकर ले चला, फूल समूचे तोड़।।
सीताफल से रामफल, बोला मत कर तर्क।
साधु और शैतान में, जो है समझो फर्क।।
जाम आम जामुन मिले, मुखर हुई चौपाल।
पत्तों ने हड़ताल की, $खत्म-बजा करताल।।
तरबूजा खरबूज से, बोला दुनिया गोल।
खरबूजे ने हँस कहा, जहाँ ढोल तहं पोल।।
इमली ने खट्टे किये, पहलवान के दाँत।
अट्टहास कर हँस पड़ी, झट बगुलों की पाँत।।
आसमान में मेघ ने, फैला रखी कपास।
कहीं-कहीं श्यामल छटा, झलके कहीं उजास।।
श्याम छटा घन श्याम में, घनश्यामी आभास।
वह नटखट छलिया छिपे, तुरत मिले आ पास।।
सुमन-सुमन में ‘सलिल’ को, उसकी मिली सुवास।
जिसे न पाया कभी भी, किंचित कभी उदास।।
उसकी मृदु मुस्कान से, प्रेरित सफल प्रयास।
कर्म-धर्म का मर्म दे, अधर-अधर को हास।।
पूछ रहा मन मौन वह, क्यों करता परिहास।
क्यों दे पीड़ा उन्हीं को, जिन्हें मानता खास।।
मोहन भोग कभी मिले, कभी किये उपवास।
दोनों में जो सम रहे, वह खासों में खास।।
सूर्य घूमता केंद्र पर, होता निकट न दूर।
चंचल धरती नाचती, ज्यों सुर-पुर में हूर।।
सन्नाटा छाया यहाँ, सब मुर्दों से मौन।
सोचे रवि चुप ही रहूँ, सत्य सुनेगा कौन।।
छाया-पीछे दौड़ता, सूरज सके न थाम।
यह आया तो वह गयी, हुआ विधाता वाम।।
मन सूरज का मोहता, है वसुधा का रूप।
याचक बनकर घूमता, नित त्रिभुवन का भूप।।
देख मनुज की हरकतें, सूरज करता क्रोध।
कब त्यागेगा स्वार्थ यह? कब जागेगा बोध।।
आठ-आठ गृह अश्व बन, घूमें चारों ओर।
रथपति कसकर थामता, संबंधों की डोर।।
रश्मि गोपियाँ अनगिनत, हर पल रचती रास।
सूर्य न जाने किस तरह, रहता हर के पास।।
नेह नर्मदा में नहा, दिनकर जाता झूम।
स्नेह-सलिल का पान कर, थकन न हो मालूम।।
सूरज दिनपति बन गया, लगा नहीं प्रतिबन्ध।
नर का नर से यों हुआ, चिरकालिक अनुबंध।।
उदय-अस्त दोनों समय, लोग लगाते भीड़।
शेष समय खाली रहे, क्यों सूरज का नीड़।।
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