सत्यवीर नाहड़िया के दोहे  - दोहा कोश

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

सत्यवीर नाहड़िया के दोहे 

सत्यवीर नाहड़िया के दोहे 

मत चूके चौहान से, रचा नया संसार।
वो दोहा दोहा नहीं, भुठ्ठी जिसकी धार।।

बेटी पावन भावना, बेटी कुल की लाज।
आज साधना से बनी, बेटी घर का ताज।।

नेता जी देने लगे, फिर जनता को भाव।
हाथ जोड़ सबसे मिलें, दिखते निकट चुनाव।।

माँ ममता की मूरती, माँ जीवन का सार।
माँ के जीवन में कभी, होता ना इतवार।।

नियमों के बाजार में, खूब मिली है छूट।
लूट मची है देश में, लूट सके तो लूट।।

घर-बाहर अब वे बनी, आन-बान पहचान।
सबसे आगे बेटियाँ, कोई हो मैदान।।

बेटी माँ का मान है, बाबुल का विश्वास।
पढ़ी-लिखी बेटी बनें, दो-दो कुल की आस।


गुंडे को सब छूट है, लठ का देख जुनून।
आम आदमी के लिए, बने सभी कानून।।

पक्के थे वे बात के, कच्चे भले मकान।
घर तो अब पक्के हुए, पर कच्चे इंसान।।

धर्म-कर्म के नाम पे, चले खूब पाखंड।
भगवे चोले में रचें, रोज नये वे फंड।।

सिखा रहे होकर बड़े, आस और विश्वास।
होते आये जो सदा, नकल मारकर पास।।

कलयुग के इस दौर में, चली अनूठी रीत।
बोतल पी गाते सुने, मैया जी के गीत।।

हाव-भाव बदले हुए, बदली-बदली चाल।
नेता जी को है मिली, जब से बत्ती लाल।।

बिना रंग होली कहाँ, बिना नमक क्या साग।
बिन गुरु पूरा कौन है, बिना कंठ क्या राग।।

भाईचारे के कहो, कैसे गाऊँ गीत।
मन के आँगन है उगी, बटवारे की भीत।।

नयी सियासत का सुनो, सबसे नया कमाल।
चार गुणा दौलत बढ़े, नेता की हर साल।।

नोटों की गर मौज है, गुंडों की भरमार।
पर्चा भरकर हो खड़ा, सरपंची तैयार।।

धरती सबकी मात है, अंबर सबका बाप।
आग-पवन पानी रहें, बनकर इनके ताप।।

नहीं समय पर भी मिली, जिसको रोटी-प्याज।
उसी बाप की मौत पे, हुआ बड़ा फिर काज।।

उल्टे-पुल्टे से हुए, कलयुग के अब काम।
रावण पग-पग हैं खड़े, नहीं दीखते राम।।

कोठी-बंग्ला कार है, प्लाट-फ्लैट जागीर।
धेले की इज्जत नहीं, कैसे कहूँ अमीर।।

भूखी-प्यासी भी रही, पाले बेटे चार।
आज बुढ़ापे में वही, माँ सब पर है भार।।

उन से मिल करके कभी, घट ना जाए शान।
छिपा दिया माँ-बाप को, जब आए महमान।।

बिल्ली खातिर दूध है, कुत्तों खातिर कार।
बिना दवा के हैं वहाँ, मात-पिता लाचार।।

हँस-हँस फांसी थे चढ़े, भारत माँ के लाल।
तब जाकर आया यहाँ, सैंतालिस का साल।।

कलयुग के इस दौर के, नये-निराले ढ़ंग।
मौज झूठ है मारता, सच पग-पग है तंग।।

नकल-विरोधी टीम के, मुखिया हैं वे खास।
स्वयं डालकर पर्चियाँ, करवाते हैं पास।।

तू भी चिमटा गाड़ दे, तू भी चोला धार।
नंबर वन है देश में, बाबों का व्यापार।।

बिकी खूब वह लेखनी, बेच दिया ईमान।
जब से दरबारी हुई, मिले बहुत सम्मान।।

कलयुग के इस दौर में, रिश्ते हैं बदहाल।
बहू पीटती सास को, साथ खड़ा है लाल।।

हंस मरें भूखे यहाँ, मौज उड़ाएँ काग।
उनका होता मान है, जिन पर सत्तर दाग।।

लोग अकेले भीड़ में, कलयुग का यह हाल।
सबकी अपनी ढ़पलियाँ, सबकी अपनी ताल।।

बदल चुका है आदमी, बदला जीवन-सार।
फर्ज़ याद जिनको नहीं, याद खूब अधिकार।।

कैसे फिर सुन दौर का, बदलेगा परिवेश।
रिश्वत देकर नौकरी, मिलती हो जिस देश।।

प्यार परायों से मिले, अपनों से आघात।
राजनीति के खेल में, संभव है हर बात।।

गाँव-नगर के हो गये, अब तो ये हालात।
मोहल्ले में मिलती नहीं, ढूंढ़ी कन्या सात।।


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