सुरेश चन्द्र 'सर्वहारा' के दोहे - दोहा कोश

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शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

सुरेश चन्द्र 'सर्वहारा' के दोहे

सुरेशचन्द्र 'सर्वहारा' के दोहे

बेटे थे परदेश में, करता कौन तलाश।
रही तीन दिन बाप की, घर में सड़ती लाश।।

पुरुष श्रेष्ठता का भरा, जिस मन में अभिमान।
वह नारी को पाप कह, करे मातृ - अपमान।।

मेल - जोल की सीख ही, देते सब सद्ग्रंथ।
घृणा बढ़ाता आपसी, कट्टरपन का पंथ।।

हैं साधन सम्पन्न जो, सुलभ उसी को न्याय।
निर्धन तो इस जगत में, बिल्कुल है असहाय।।

हो अंधा शासक जहाँ, चुप हों सभी प्रबुद्ध।
तुल्य महाभारत वहाँ, होता रहता युद्ध।।

बेटी के दुश्मन हुए, उसके ही माँ - बाप।
किसे पुकारे कोख में, वह मरती चुपचाप।।

पेट मिल गया पीठ से, टाँगें हुई कमान।
श्रमिक हुआ कंकाल - सा, लोग कहें इंसान।।

रहा तड़पता भूख से, सारी सारी रात।
निर्धन बालक को नहीं, दीखा नया प्रभात।।

लोग वाहनों की तरह, निभा रहे दस्तूर।
बीच फासले रख कहीं, निकल चले हैं दूर।।

रक्षा खर्चों का बजट, बढ़ता है हर साल।
भूख गरीबी रोग से, है जनता बेहाल।।

राजनीति गणिका बनी, नेता हुए दलाल।
सत्ता कोठे - सी हुई, देश बिकाऊ माल।।

अन्न उगाते खेत को, लील गया बाजार।
अब किसान भी हो गया, शहरी चौकीदार।।

सहकर निर्धन रोज ही, मँहगाई की मार।
अच्छा - खासा भी लगे, बरसों का बीमार।।

रह रह कर चुभती रही, सम्बन्धों की फाँस।
वृद्धाश्रम में वृद्ध ने, ली फिर अंतिम साँस।।

मानवीय संवेदना, करके सभी समाप्त।
आज हुई धर्मान्धता, विश्व - पटल पर व्याप्त।।

अब पंचों के मन नहीं, परमेश्वर का वास।
निर्णय उनके पक्ष में, जो हैं उनके खास।।

संविधान की भावना, कौन रखे अब याद।
सिर पर चढ़कर धर्म का, बोल रहा उन्माद।।

बिना बहस के हो रहे, संसद में बिल पास। 
बहुमत को संवाद की, रही न चिन्ता खास।।


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