रिश्तों में ऐसी खिंची, गहरी एक लकीर।
बेटे को दिखती नहीं, बूढ़ी माँ की पीर।।
आया था बहुरूपिया, दिया न हमने ध्यान।
चला गया है बाँटकर, अच्छे दिन का ज्ञान।।
दस्तावेज़ों में दबी, हर सरकारी छूट।
राज व्यवस्था ने लिया, राजकोष को लूट।।
ज़िन्दा बेटी जल रहीं, गाँव गली बाज़ार।
कुम्भकरण-सी नींद में, सोया चौकीदार।।
चौपट फ़सलों को मिला, काग़ज़ में अनुदान।
टका न आया हाथ में, बढ़ता गया लगान।।
आय सेठ की सौ गुनी, सौ-सौ दीं सौगात।
जनता के हिस्से पड़ी, केवल मन की बात।।
रेल बिकी, सड़कें बिकीं, खेतों पर है ध्यान।
बेचेगा फिर एक दिन, हमको भी सुल्तान।।
बूढे बरगद के सहज, सूखे जबसे पात।
बिन नभचर के बीतती, जानें कितनी रात।।
छाँव तले जिसकी पले, भूल गये उपकार।
बूढ़ा बरगद भी हुआ, अपने घर लाचार।।
शाम ढली दीपक जले, झिलमिल सजी मुँडेर।
मन में झाँका ही नहीं, छिपा जहाँ अन्धेर।।
आँधी औ' तूफ़ान में, जो सह सकें प्रहार।
वहीं वृक्ष फिर बाँटते, ख़ुशियों के उपहार।।
हँसती-खिलती मंजरी, बेशक़ चुभते खार।
गन्ध और मकरन्द से, रखती वन गुलजार।।
नभ से आयी आपदा, उजड़े खग के ठाँव।
बुलबुल ने फिर भी नहीं, छोड़ा अपना गाँव।।
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