यतीन्द्रनाथ 'राही' के दोहे
आँगन सूना छोडक़र, सपने छोड़ अनाथ।
गाँव शहर में जा बसा, कुछ सपनों के साथ।।
आँसू पीकर माँ पड़ी, सपन समेटे बाप।
पूत अकेला शहर में, सडक़ रहा है नाप।।
हाथ झटक चम्पा चली, बूढ़ा हुआ रसाल।
वृद्धाश्रम के द्वार पर, खड़े करोड़ी लाल।।
सर-सरिता-बादल पिये, फिर भी रहे उदास।
अब इस आदम की कहो, कहाँ बुझेगी प्यास।।
खोज रहे हो तुम जिसे, ऐसे खड़े उदास।
वह हंसों का गाँव था, अब यह काग निवास।।
पत्थर को अर्पित किए, अक्षत-चंदन-फूल।
पर जीवित इन्सान को, बोये पग-पग शूल।।
बाप रोग से मर गया, पूत कजऱ् के भार।
बची रोटियाँ खा गए, बामन-धूत-लबार।।
नन्हे दीपक ने नहीं, पल भर मानी हार।
रहा रात भर काटता, तिल तिल कर अँधियार।।
हमें न आया आम को, कहना कभी बबूल।
इसीलिए फुटपाथ पर, रहे छानते धूल।।
टूट चुके कब तक सहें, ये दंशों पर दंश।
करना है निर्मूल अब, यह साँपों का वंश।।
नग्र द्रौपदी हो रही, मनमोहन हैं मौन।
बिके भीष्म औ’ द्रोण की, बात करे अब कौन?
चलो देख लें आप भी, यह काजल का धाम।
जो जितनी कालिख धरे, उतने उसे सलाम।।
सच्चाई जिन्दा जली, हुई राख का ढेर।
लोग रोटियाँ सेंकते, शर्मनाक अंधेर।।
बड़ी मछलियों के लिए, बने कहाँ हैं जाल।
छोटी मछली ही सदा, गंदा करती ताल।।
क़द से ऊँची कुर्सियाँ, कर्मों की गति दीन।
श्वेत लिफाफों में धरे, ख़त मर्यादाहीन।।
कही अनकही रह गई, जाने कितनी बात।
कागद पर कैसे धरें, छाती के आघात।।
पर निंदा रस बरसते, अहम शिखर आसीन।
अपने-अपने पंथ के, रचते अर्थ नवीन।।
तू कीचड़ के बीच है, मैं नाली के बीच।
एक दूसरे पर रहे, फिर क्यों कीच उलीच?
धर्म रसातल को गया, पूँजी गई विदेश।
गीध कुर्सियों पर जम, धर हंसों का वेश।।
ये पत्थर के घर निरे, हैं बंजर इन्सान।
इनके मन टकसाल हैं, इनके दिल शैतान।।
कल के उजले पृष्ठ पर, लिखना तुम मुस्कान।
पा जायेंगे धन्यता, ये बूढ़े अरमान।।
बूढ़ा पीपल काँपता, बेबस दीन रसाल।
जो आता है नोंचकर, ले जाता है खाल।।
तपकर कुन्दन हो गए, संघर्षों की आग।
जितना गहरा दर्द है, उतना मीठा राग।।
बड़े घृणित चेहरे मिले, उतरा आज न$काब।
फ़िदा हो रहे थे कभी, जिनका देख शबाब।।
भस्मासुर भी कब बचे, होती देर सबेर।
और जियेगा कब तलक, यह कलुषित अंधेर।।
हाथ झटक चम्पा चली, बूढ़ा हुआ रसाल।
वृद्धाश्रम के द्वार पर, खड़े करोड़ी लाल।।
तन सन्यासी कर लिया, मन को कहाँ लगाम।
एक हाथ गंगाजली, एक हाथ में जाम।।
अब अपना ही घर हमें, लगता है अनजान।
द्वारे पर शहनाइयाँ, भीतर है सुनसान।।
दीवारें कंपित खड़ी, पडऩे लगी दरार।
खम्भे सह पाते नहीं, अब इस छत का भार।।
खोज रहे हो तुम जिसे, ऐसे खड़े उदास।
वह हँसों का गाँव था, अब यह काग निवास।।
रिश्तों की गरमाहटें, मार गया हिमपात।
कैसे निष्ठुर गीत में, पाएँ कहो निजात।।
दर्पण में छवि देखकर, कहने लगा कबीर।
खूँटी पर अब टाँग दो, वे तरकश के तीर।।
छत सन्नाटे बुन रही, ढोती दर्द मुँडेर।
रहे देखते उड़ गए, हाथों- पले बटेर।।
पंख कपोतों के कटे, हंसा गए विदेश।
कागों के अब हाथ है, पीहू के सन्देश।।
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