यादराम शर्मा के दोहे
बोतल हैं सब एक सी, लेबिल जिन पर भिन्न।रह जिनमें सुख भोगते, राजनीति के जिन्न।।
निज हित में करते रहे, जो अपनों की खोज।
अजब कहानी प्यार की, लिखते वे हर रोज।।
मानवता की जब नहीं, दूर दूर तक छाँव।
गर्म रेत पर किस तरह, रक्खूँ नंगे पाँव।।
धुन्ध सरीखा देश में, फैला भ्रष्टाचार।
गांधी तेरे देश में, नोटों की बौछार।।
कल तक देते गालियाँ, आज मिलाते हाथ।
कैसे-कैसे लोग अब, सत्ता-सुख के साथ।।
किस्मत ने चिट्ठी लिखी, जब से मेरे नाम।
सहज-सहज होने लगे, सारे बिगड़े काम।।
छुरा घोंपते पींठ में, कहें सामने मित्र।
देखे ऐसे प्यार के, हमने चित्र विचित्र।।
सूरत से भोले लगें, भाव भरें गम्भीर।
सोलह आने सन्त वे, बोले सन्त कबीर।।
जब से भ्रष्टाचार ने, रक्खे अपने पाँव।
नैतिकता ईमान के, नष्ट हुए सब गाँव।।
मिल जायेगा ख़ाक में, ओढ़ धरा की धूल।
टूटेगा जब डाल से, खुश्बू वाला फूल।।
टूटे थर्मस-सा हुआ, अब अपनों का प्रेम|
भीतर बिखरा काँच है, बाहर सुंदर फ्रेम||
भीतर बिखरा काँच है, बाहर सुंदर फ्रेम||
सोलह आने है सही, बात हमारी मित्र|
राजनीति में है नहीं, जिंदा कहीं चरित्र||
बढ़-चढ़ कर वे लिख रहे, हर पल नेह निबंध|
कभी नहीं भाती जिन्हें, अपनेपन की गंध||
घोटालों के घाट पर, नेता करें किलोल|
गले मिलें सब प्यार से, कुरसी की जय बोल||
राजनीति में है नहीं, जिंदा कहीं चरित्र||
बढ़-चढ़ कर वे लिख रहे, हर पल नेह निबंध|
कभी नहीं भाती जिन्हें, अपनेपन की गंध||
घोटालों के घाट पर, नेता करें किलोल|
गले मिलें सब प्यार से, कुरसी की जय बोल||
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