कमलेश व्यास ‘कमल’ के दोहे
अमराई कुछ नीम थे, थी पीपल की छाँव।
धीरे-धीरे गुम हुआ, महानगर में गाँव।।
आभामंडल क्षीण है, नहीं बात में तंत।
कुटिया में ए.सी. लगा, कैसे मानूँ संत।।
विद्व विज्ञ अनभिज्ञ हैं, जड़-जमीन से मित्र।
पोथी पढ़-पढ़ हो गए, उनके भाव विचित्र।।
चप्पल ही घिसते रहे, पहन न पाये बूट।
जिसने धारण कर लिया, शादी वाला सूट।।
बेशर्मी हद से बढ़ी, दुबकी सहमी लाज।
वीरोचित संस्कार से, वंचित हुआ समाज।।
सत्ता सुख की कामना, वोटों की दरकार।
हंसों को दुत्कार है, कौवों का सत्कार।।
नर्म बिछौना भी लगे, तब काँटों की सेज।
जब अपने करने लगें, अपनों से परहेज।।
पहले जैसा अब नहीं, होता हँसी-मजाक।
प्रेम और सौहार्द से, बड़ी हुई अब नाक।।
इक दूजे को देखकर, दोनों नहीं प्रसन्न।
उसके घर में भूख है, इसके घर में अन्न।।
कुछ अपनी मजबूरियाँ, कुछ उनका व्यवहार।
जोड़ न पाये साथ में, जीवन भर का तार।।
झूठा बोले जोर से, सच्चा सहमे आज।
आवाजें कर्कश हुईं, बहरा हुआ समाज।।
दाँत मांजने के लिए, कण्डे वाली राख।।
दानव भ्रष्टाचार का, मूँछे रहा उमेठ।
हंस भिखारी हो गए, कव्वे धन्नासेठ।।
कुत्ते घर में पल रहे, सडक़ों पर है गाय।
बच्चे तरसे प्यार को, मौज मनाए धाय।।
राजनीति के पेड़ से, टूटे अच्छे पात।
बचे हुए कुछ दे रहे, दीमक को भी मात।।
राज व्यवस्था का हुआ, ऐसा बंटाढ़ार।
कड़ी सुरक्षा में रहे, जिस पर रक्षा भार।।
बदल गए हैं माज़रे, बदल गए अंदाज।
शेर दिहाड़ी कर रहे, गीदड़ के घर आज।।
जिन पेड़ों की छाँव में, बड़े हुए हैं आप।
उन पेड़ों को काट कर, क्यूँ करते हो पाप।।
सूरज के रुखसार पर, पड़ी समय की चोट।
पूरे दिन सोता रहा, ले बादल की ओट।।
कभी-कभी कुछ लोग यूँ, बरबस खींचे ध्यान
जैसे उनसे हो कई, बरसों की पहचान।।
ढोंगी बिन ढूँढे मिले, ढूँढे मिले न सिद्ध।
मानव का चोला पहन, घूम रहे हैं गिद्ध।।
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