अशोक कुमार रक्ताले के दोहे
दबी हुई इक चाह थी, या थी उसकी भूल।पनपाया फिर ओस ने, काँटों भरा बबूल।।
लोभ बढे रज भाव से, मन में ले विस्तार।
धूल डालता सत्य पर, बढ़ता स्वार्थ विकार।।
मन ही कहता आस रख, मन ही खोता धीर।
दुर्गम पथ लम्बा सफर, जब देते हैं पीर।।
मन के मैले पृष्ठ की, धूल हटाता कौन।
खामोशी मैंने धरी, तुमने साधा मौन।।
सीधी सच्ची सोच हो, उत्तम रहें विचार।
वहाँ मुसीबत हो नहीं, सिर पर कभी सवार।।
बना शाख को पालना, हरित पर्ण की सेज।
वृक्ष पके फल को रखे, कब तक भला सहेज।
आशा है विश्वास है, प्रेम समर्पण त्याग।
माँ सद्गुण की खान है, माँ से रख अनुराग।।
मानव मन में लोभ की, खड़ी हुई दीवार।
आज उसी की ओट में, पनपा भ्रष्टाचार।।
दर्द पराया जान कर, बन जाए अनजान।
मानवता जिसमें नहीं, वह कैसा इंसान।।
अकुलाई प्यासी गई, नदिया रही उदास।
तोड़ दिया संसार ने, जब उसका विश्वास।।
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