विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’ के दोहे  - दोहा कोश

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’ के दोहे 

विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’ के दोहे 

बिटिया की पाजेब से, गूँजे जब मंजीर।
पुष्प वाटिका हो गई, आँगन की तकदीर।।

आँगन में उतरे नहीं, डरे  गुनगुनी  धूप।
नोच रहें हैं कोख में, जालिम उसका रूप।।

सरिता खुशियों की बहे, हर ले दु:ख समूल।
सुरभित घर आँगन लगे, बिटिया ऐसा फूल।।

चक्की सी पिसती रहे, दिनभर करती काम।
घर की लक्ष्मी को कभी, मिले नहीं आराम।।

कदम-कदम पर खार हैं, जिह्वा-जिह्वा नीम।
पीड़ा  प्रबल  सहेजते,  बेघर  और  यतीम।।

दिवस लगे अब हाँफने, थककर बैठी रैन।
अंधी-बहरी  दौड़ ने, छीना मन का चैन।।

लगी कतारें अब वहाँ, अटी पड़ी दहलीज।
बाँट रहा है ज्ञान वो, जिसको नहीं तमीज।।

दुख की दस्तक द्वार पर, सुख के मिटे निशान।
ऐसे  में  होने  लगी, अपनों  की  पहचान।।

प्रेम दिलों में अब नहीं, उगने लगे बबूल।
नफरत की ये आँधियाँ, रौंदे बाग समूल।।

सावन आँखों में रहा, अंतर्मन  में  शीत।
पतझड़ बाहों में लिए, गई जिन्दगी बीत।।

धरा  सरीखी  वेदना,  अम्बर  जैसी पीर।
अधरों की मुस्कान से, आँखों झरता नीर।।

जबसे कम  होने लगा, आपस का संवाद।
पढऩे को मिलने लगा, चेहरों पर अवसाद।।

आँखें सावन हो गयी, मन जलता तंदूर।
कैसी उल्फत की डगर, कैसा ये दस्तूर।।

नये  दौर  तेरा  करूँ, कैसे  मैं  गुणगान।
हंसों को आँसू मिलें, कौवों को मुस्कान।।

संवादों के शव पड़े, मातम करता कौन।
सन्नाटों ने रख दिया, हर जिह्वा पर मौन।।

नये  दौर  से मिल रही,  ये  कैसी  तालीम।
आँगन में उगते नहीं, अब तुलसी औ’ नीम।।

झूठ   लगाता   कहकहे,   खूब मचाता  धूम।
नजर झुकाये चुप खड़ा, सच कितना मज़लूम।।

जश्न  हुआ जब झूठ का, लगे ठहाके खूब।
सच की ऐसी  दुर्दशा,  जैसे  कुचली  दूब।।

सजी महफिलेें झूठ की, लगे छलकने जाम।
बीच ठहाकों के हुआ,  देखो  सच  नीलाम।।

चिडिय़ा अब चहके नहीं, रूठा कोयल गान।
‘प्रीत’ कहाँ पर खो गई, आँगन की मुस्कान।।

ओढ़ उदासी दिन खड़े, रातें  हैं  बेचैन।
दुख-दरख़्त को सींचते, ये दुखियारे नैन।।

जीवन में हर दिन किया, मैंने यूँ विषपान।
अपनों की चोटें सही, मुख पर ले मुस्कान।।

सूने तट बिन नीर के, करें मातमी शोर।
दफन रेत में हो गया, गंगा जी का छोर।।

किससे कहती वेदना, कौन समझता पीर।
घुट-घुट कर गंगा मरी, सूखा सारा नीर।।

बाँट सकी है भीड़ कब, दु:ख-दर्द के ढेर।
चकाचौंध की आड़ में, छुपा रहे अंधेर।।

ठहरे-ठहरे दिन लगे, भटकी-भटकी रात।
कोई अब करता नहीं, नेह भरी बरसात।।

नियम कायदे ताक पर, सडक़ों पर है खून।    
 उग्र  भीड़  के  सामने,  बेबस  है  कानून।।

गश्त गमों की बढ़ चली, खुशियों की हड़ताल।
सदियों  की  ले  वेदना,   बीत  रहें  हैं  साल।।

ढूँढ रहें दिन रैन हैं, मिलता नहीं सुकून।
खुद की काया नोचते, अपने ही नाखून।।

खूब ठहाके मारती, करती दो-दो हाथ।
भूख गरीबी बेबसी, मजदूरों के साथ।।

सन्नाटों औ’ शौर ने, जमा लिए हैं पाँव।
सूने-सूने  हो  गए,  संवादों  के  गाँव।।

मुख पर तो मुस्कान है, अंतर्मन भयभीत।
हम ये कैसी  जिन्दगी, करने लगे व्यतीत।।

नये दौर में हे सखे, मत करना ये भूल।
पल्लू से रखना नहीं, बाँधे हुए उसूल।।

सच्चाई  की  डोर  से,   बाँधे  चला  उसूल।
जीवन में उसको सदा, पग-पग मिले बबूल।।

नये दौर में गाँव का, बदल गया है रूप।
पहले सी अब है नहीं, यहाँ गुनगुनी धूप।।

तृष्णा कैसे तृप्त हो, मिटे किस तरह भूख।
सूख गया इस दौर में, अहसासों का रूख।।

हवा शहर की कर गयी, इतना  उसे  विभोर।
अब वो आता ही  नहीं, कभी गाँव की ओर।।

तन्हा जीवन  की  मिली, बेटों  से  सौगात।
घुट-घुट कर जीने लगे, आँसू पीकर तात।।

दिवस मातमी हो गये, रातें हैं गमगीन।
दौर आज का ले गया, सारी खुशियाँ छीन।।

बेटों  को  माता-पिता , लगने  लगे  फिजूल।
आम समझ सींचा जिन्हें, निकले वही बबूल।

प्रीत जोडऩे आ गया, मन में लेकर बैर।
काई  वाले ताल में, कब  टिकते है पैर।।

जब भी खोले प्यार से, मुस्कानों के थान।
गैरों  से  भी  हो  गई, अपनों सी पहचान।।

राजनीति ने कर दिया, उनका  बेड़ा  पार।
उजले-उजले हो गये, सभी स्याह किरदार।।

रखता  कितना नीर  है,  सागर  अपने  पास।
मगर बुझाता वो नहीं, कभी किसी की प्यास।।


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