महेंद्र सिंह चौहान के दोहे - दोहा कोश

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रविवार, 15 अक्तूबर 2023

महेंद्र सिंह चौहान के दोहे

महेन्द्रसिंह चौहान के दोहे

बाँध बनाकर आपने, नाम कमाया खूब।
नदिया लेकिन मर गयी, खुद के जल में डूब।।

उछल कूद से कब बढ़ा, आगे वहाँ रिवाज।
जंगल जिसने धर दिया, मर्कट के सिर ताज।।

लाख कटें तरुवर सभी, टूटे चाहे आस।
पिंजड़े पर बढ़ता नहीं, पंछी का विश्वास।।

बगुले हित में मीन के, किये जा रहे जाप।
पाकर मौका आपने, गर्दन ली फिर नाप।।

बादल आकर कह गये, कानों में कुछ बात।
झींगुर घुँघरू बाँधकर, नाचे सारी रात।।

छप्पर टपका रातभर, गिरी कहीं दीवार।
फिर भी बारिश का मना, गाँव-गाँव त्योहार।।

रूप गन्ध से लूटते, वे मन की जागीर।
कुदरत ने क्या खूब दी, फूलों को तासीर।।

लड़ना था हमको जहाँ, छोड़ दिया वह मंच।
आपस में ही हम सदा, करते रहे प्रपंच।।

लुटा-लुटाकर चल दिये, जो था अपने पास।
सागर के सम्मुख सदा, रखी मेघ ने प्यास।।

सागर के दुख-चैन का, लहरें ही अहसास।
पीड़ा कह लो तुम इसे, चाहो तो उल्लास।।

दरवाजे खामोश हैं, दीवारें भी मौन।
सूने घर के द्वार पर, दस्तक देता कौन।।
 
बदलीं सब परिपाटियाँ, बदले सभी विधान।
मेंढक के मुख हो रहा, साँपों का गुणगान।।

प्रेम प्यार सद्भावना, शिक्षा के संस्कार।
मिलती घर परिवार से, उत्तम पैदावार।।

बँटता जब घर-आँगना, सुनता तब फिर कौन।
दीवारें जब बोलतीं, छत हो जाती मौन।।

दुनिया धनपति की हुई, इसी तरह आबाद।
उजड़ रही थीं बस्तियाँ, बने वहाँ प्रासाद।।

जुगनू में जो ढूँढते, उजियारे का वास।
पर सचमुच में वे रहे, अँधियारे के दास।।

जब तक दम में दम रहा, तम कब आया पास।
दीप आखिरी साँस तक, देता रहा उजास।।

घर से छूटे आँगना, छूटी ठण्डी छाँव।
चिड़िया छत पर बैठकर, रोज जलाती पाँव।।

अँधियारे को देखकर,ढूँढें आप चिराग।
जुगनू ने सुलगा रखी, घोर तिमिर में आग।।

मन के बिरवे को मिला, जब-जब धीरज आब।
मुश्किल प्रश्नों के मिले, तब-तब सरल जवाब।।

ज़ख्मों को उनके रही, मरहम की दरकार।
नागफनी करते मिली, फूलों का उपचार।।

लाठी बूढ़े बाप की, रहीं कभी सन्तान।
आज लाठियाँ जा बसीं, अमरीका जापान।।

-राधकृष्ण कॉलोनी,
सनावद रोड़, खरगोन (म.प्र.)
99269-53230

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