मिथिलेश वामनकर के दोहे  - दोहा कोश

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शनिवार, 14 जनवरी 2023

मिथिलेश वामनकर के दोहे 

मिथिलेश वामनकर के दोहे 

केवल देखे आपने, मेरे शब्द अधीर।
मैंने भोगी है मगर, अक्षर-अक्षर पीर।।

टूटेगा उस दिन प्रिये, रिश्तों का उपवास।
बैठेगी कुछ माफ़ियाँ, जब गलती के पास।।

आँखें भर भर आ गई, छूकर उनके पाँव।
यादों में फिर छा गया, बरगद वाला गाँव।।

ईश्वर ने कैसा रचा, तेरा मेरा साथ।
मेरी ताकत बन गए, मेंहदी वाले हाथ।।

दो हाथों ने बात की, हम दोनों है तंग।
लेकिन तू खुशरंग तो, मैं भी हूँ खुशरंग।।

पनघट ने ही छोड़ दी, जब नदिया से प्रीत।
लहरों पर लिखती रही, वो आँसू के गीत।।

भूख गरीबी के लिए, निश्चित किया किसान।
सोचो बाकी लोग हैं, कितने चतुर सुजान।।

अब जाकर समझे प्रिये, सत्ता का जंजाल।
वो भी नटवरलाल थे, ये भी नटवरलाल।।

अब उससे ही पूछिए, आसमान का छोर।
उडती हुई पतंग की, जिसे थमाई डोर।।

राजाजी सैय्याद से, चलते अद्भुत चाल।
दिखलाते दाना मगर, छिपा रखा है जाल।।

लेकर आया राजपथ, जाने कैसी छाँव।
जब-जब चलते हैं पथिक, तब-तब जलते पाँव।।

ढूँढ-ढूंढ उत्तर यहाँ, जीना हुआ मुहाल।
सदा दिए इस पेट ने, कितने कठिन सवाल।।

इच्छाओं की शाख पर, दुख था लिए गुलेल।
धीरे से मुरझा गई, तब सपनों की बेल।।

जब विश्वास अटूट से, देखे चकनाचूर।
बरगद भी रहने लगे, अब पंछी से दूर।।

जब खुशियों के नीड़ को, लगने लगी खरोंच।
मन पंछी ने तोड़ दी, तब सपनों की चोंच।।

नील-गगन के सामने, जब भी उठी मशाल।
कैद धुँए में फिर मिली, बेसुध ज्योत हलाल।।

अबके निर्धन जेब को, ऐसी पड़ी लताड़-
“महँगाई का भूत है, चिल्लर से मत झाड़”।।

केवल भिक्षुक ही रहे, देवालय के प्राण।
लोग मिले निष्ठुर वहाँ, देव मिले पाषाण।।

सुबह-सवेरे जागकर, कहता है अखबार।
आज समय के पृष्ठ पर, लिख दो चीख़-पुकार।।

आखिर क्यों इस प्रश्न पर, सब रहते हैं मौन?
उसने भेजा एक था, हमने पाया पौन।।

उसने कुछ ऐसा बुना, इन्द्रधनुष-सा जाल।
रंगों में खोते गए, होते रहे हलाल।।

जो कहते हैं मंच पर, अवसर है भरपूर।
नेपथ्यों से भी सदा, वो रखते हैं दूर।।

हमसे ना होगी सखा, राजनीति से प्रीत।
वहाँ दहकती भट्टियाँ, हम ठहरे नवनीत।।

या तो कथ्य सपाट है, या खबरों का क्लेश।
दोहे का दम घोंटते, नारे औ’ उपदेश।।

हँसकर यूँ करती विदा,बेटी को कॉलेज।
व्याकुल माँ के स्वप्न में, फिर आते चंगेज।।

सौंपा जो तुमने उसे, शीशे का घर बार।
बदल गया क्या आजकल,पत्थर का व्यवहार।।

घट भर जाए पाप का, तब खुलता है राज़।
उसकी लाठी में कभी, होती ना आवाज़।।

चोट हथोड़े की सहे, जो सर्जन दौरान।
कहलाता पाषाण तब,मंदिर का भगवान।।

पूरे घर के वो सदा, पिल्लर रहे सशक्त।
मगर पिता करते नहीं, प्रेम कभी अभिव्यक्त।।

सदा अमीरी यूँ करे, वैभव का विस्तार।
निर्धनता से छीनकर, जीने का अधिकार।।

पंछी-धुआँ-पतंग हो, या हो मन बदमाश।
सबके अपने ढंग हैं, छूने के आकाश।।

@मिथिलेश वामनकर

 

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