एम.पी.विमल के दोहे
मानव तन पाया मगर, मानवता है दूर।दानवता के खेल में, मानव चकनाचूर।।
अत्र तत्र सर्वत्र क्यों, होता है अब खून।
प्रजातन्त्र में खून के, खिलने लगे प्रसून।।
दुपहरिया है जेठ की, रवि बरसाता आग।
तपती धरती आग सी, लू गाती है राग।।
लू की थाप थपेड़ से, काया होती तंग।
खग मृग तरु व्याकुल भये, छिड़ी काल से जंग
मानसून आने लगा, उठी घटा घनघोर।
घन गरजे चमकी तडि़त, कुकहन लागे मोर।।
बारिस पर बारिस पड़ी, भरे नदी तालाब।
धरती जलमय हो गयी, पडऩे लगे कटाव।।
हाथ फावड़ा ले चला, साहस रूप किसान।
मेंड बना जल रोकता, कृषिकर सन्त समान।।
जब बारिस होती नहीं, पवन उड़ाती रेत।
हा-हा करती जि़न्दगी, जल बिन सूखे खेत।।
खुद भूखा रहता मगर, सबको देता अन्न।
अपना दुख कहता नहीं, रहता विमल प्रसन्न।।
परहितकारी सन्त सम, धरती के भगवान।
तेरे साहस को नमन, ओ कृषिकार किसान।।
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